Friday 31 March 2017

सब्जियों की खुशबू

देश की अधिकांश आबादी गांव में रहती है, फिर भी शहरी संस्कृति को श्रेष्ठ समझा माना जाता है। गंवारशब्द तो इतना गिर गया कि अक्सर बेवकूफके अर्थ में प्रयोग किया जाता है। शब्दों के इस तरह के अर्थ प्राप्त  करने की अपनी राजनीति होती है। गांवों से जुड़ी चीजों को जिन संदर्भों में इस्तेमाल किया जाता है, उनसे अक्सहर हमें गावों की संस्कृति को कमतर समझे जाने का अहसास होता है। दरअसल यह गांव के वजूद, इसकी की अस्मिता को हाशिये पर धकेलने का एक तरीका है। जबकि पर्यावरण और संस्कृोति की दृष्टि से कई धरोहरों को गांवों ने ही सबसे ज्यादा संभालकर रखा हुआ है।


यह रोजगार की मजबूरी है कि लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। हालांकि, शहरी जीवन का अपना एक आकर्षण है, जिसके साथ आधुनिकता का बोध बहुत गहराई से जुड़ा है। रोजगार और शिक्षा की तलाश में मैं भी घर से बाहर हूं। समय मिलने पर जब भी उत्तराखंड में अपने गांव जाती हूं तो अपना गांव-बस्तीो कहीं ज्याेदा सुकून देने वाली शांत जगह लगती है। वहां रहते हुए कभी इस खूबी का अहसास नहीं हुआ। लेकिन यह एक बाहरी नजर है। पर्यटक भी इसी नजर से इन पहाड़ों को देखते हैं। इस नजर से सब कुछ खूबसूरत नजर आता है। विकास और आधुनिकता की दौड़ में गांव और इससे जुड़ी चीजों, बातों और खूबियों को अप्रासंगिक, पिछड़ी और दोयम दर्जे की करार देने वाली सभ्यता इन चीजों को अपने ड्राइंग रूम में सजाने की थोड़ी-सी दरियादिली जरूर दिखा देते हैं।


जब भी मुड़कर अपने गांव की ओर देखती हूं तो अपने आगे बढ़ने से ज्यादा एक भरे-पूरे समाज के पीछे छूट जाने का अहसास मन में भर जाता है। वे लोग जो हर साल भूस्खलन, बाढ़ जैसी त्रासदियों की मार झेलने हुए भी बाहरी दुनिया को मुस्कुंराते हुए नजर आते हैं। बड़े-बड़े बांधों की राह में खोखले हो चुके पहाड़ों पर बसे ये लोग पहाड़ से विशाल ह्रदय के साथ सबका स्वाझगत करते हैं।

जब-जब वापस गांव का रुख करती हूं तो ये सवाल हो भी तीखे होते जाते हैं। हर साल बहुत कुछ बदल जाता है, बहुत कुछ पुराना पड़ जाता है। आज से 10-15 साल पहले तक जिन गांवों में हर घर में गाय, भैंस और बैल होते थे, किसी घर में मुश्किल से ही कोई जानवर नजर आता है। सौ से ज्याहदा घरों के गांव में मुश्किल से 10-12 मवेशी हैं। हां, कुछ जगह 3जी या 4जी के सिग्नल पहुंचने लगे हैं, लेकिन मवेशियों से नाता टूटता जा रहा है। या कहें कि वक्तन के साथ लोगों की जरूरतें और प्राथमिकताएं बदल रही हैं।


मेरे लिए इस तरह के बदलाव आधुनिक अर्थव्यवस्था या विकास के आधुनिक मॉडल के साये में पनप रही इकहरी संस्कृति के प्रसार की निशानियां हैं। गांव के लोग भी दूध-दही-मट्ठे के लिए बाजार पर उसी तरह निर्भर होने हैं, जैसे शहरों में होते हैं। गांव में किसी के यहां ज्याकदा दूध-दही हो तो तो मक्खन और घी के लिए एडवांस में ही पैसे दे दिए जाते हैं। इसके लिए भी बारी का इंतजार करना पड़ता है। गांव से गांव वाली चीजों को आंखों से ओछले होते देखना एक अलग किस्मऔ की पीड़ा और आश्चर्य की बात है।

इस बार काफी दिन बाद घर जाना हुआ तो घर की हरी सब्जी राई और सरसों खाने का बहुत मन था। कुछ अपने घर की तो कुछ चाचियों-भाभियों द्वारा दी गई। लेकिन खाने के बाद वह उत्साह अजीब निराशा में बदल गया। पहले होता यह था इन सब्जियों की खुशबू खींच ले जाती थी। अब ना सब्जी में खुशबू थी, ना पहले वाला स्वाद। पता चला कि गांव के लोगों ने खेतों में गोबर/राख डालना लगभग छोड़ दिया है। मवेशियों के घटने से गांवों में प्राकृतिक खाद की भी कमी होने लगी है और यूरिया जैसी उर्वरकों का प्रयोग बढ़ रहा है। मुझे सब्जियों से गुम होते स्वाद और सुगंध की वजह तलाशने में देर नहीं लगी। न ही इसके लिए पूरे गांव को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। तरक्की और आधुनिकता की जो समझ हाल ही के वर्षों में विकसित हुई यह उसी की देन है। दरअसल, ये गांव वही सीख रहे हैं, जिसे शहरों ने श्रेष्ठो साबित किया है

23 साल 5 महीने 26 दिन की जिंदगी…

23 मार्च को शहादत दिवस के मौके पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा) में नाटक ‘गगन दमामा बाज्यो’ का मंचन हुआ। इसे प्रसिद्ध अभिनेता और नाटककार पीयूष मिश्रा ने लिखा है। निर्देशक राजकुमार संतोषी ने इस पर फिल्म ‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’ फिल्म बनाई है। कैंपस में डेढ़-दो महीने की रिहर्सल के बाद हम नाटक का सफल मंचन कर पाए। खास बात ये रही कि इसमें भाग लेने वाले ज्यादातर कलाकार ऐसे थे जो पहली बार नाटक कर रहे थे। इससे निर्देशक का काम और भी मुश्किल हो गया था। नाट्यकला में एम.ए और एमफिल करने वाले रोहित कुमार ने इसका निर्देशन किया। रोहित एन.एस.डी (त्रिपुरा) से नाटक में एक साल के डिप्लोमा होल्डर भी हैं।
बस देखने गई थी और बन गई नाटक का हिस्सा…
रोहित 2003 से रंगमंच में सक्रिय हैं। उन्हें हिरावल ‘पटना’ के साथ रंगकर्म का लंबा अनुभव है। लोक और प्रतिरोध के रंगमंच से उनका गहरा जुड़ाव है। लगभग 7 नाटकों का निर्देशन कर चुके हैं। उन्होंने फेसबुक पर शेयर किया था कि जो भी नाटक से जुड़ना चाहे जुड़ सकता है। इस तरह मैं भी नाटक का हिस्सा बनी। हालांकि, पहले बस देखने भर के लिए रिहर्सल में गई थी, जब अच्छा लगने लगा तो हिस्सा बन गई।



पांच मिनट के रोल से कई बार इरिटेड भी होती थी..
शुरुआती दिनों में एक्सरसाइज और  रीडिंग करवाती जाती रही। डेढ घंटे के नाटक में सिर्फ चार से पांच मिनट के रोल को कई बार इरिटेट हो जाती थी। लेकिन नाटक के तैयार होने की प्रक्रिया पहली बार देखी। दर्शक बनकर तो नाटक कई बार देखा। औऱ उस तरह से बैठकर आलोचना भी कई बार की और तारीफ भी। पहली बार देखा एक  डायरेक्टर की मेहनत क्या होती है?  छोटे से छोटे रोल के लिए भी कितना समय देना होता है और जुनून से लगना पड़ता है। इस तरह समझ आया नाटक सिर्फ लीड रोल वाले का नहीं होता है, एक डॉयलॉग बोलने वाले का भी उतना ही होता है जितना लीड करेक्टर का होता है। सही मायने में नाटक का सबसे बड़ा हीरो डायरेक्टर ही होता है।
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शिव के अभिनय ने किया प्रभावित
नाटक के दौरान ही कई बार यह होता था कि खुद ही डॉयलॉग बोलते- बोलते रोंगटे खड़े हो जाते। शिव वर्मा का किरदार करते हुए शिव का बूढे का डॉयलॉग सुनते- सुनते रो जाने को जी करता। उसके आंखों से बहते आंसू। जब मैं कैम्पस में आई। कोर्ट मार्शल में शिव को देखा रामचंदर के रोल में। तब से ही शिव की एक्टिंग ने प्रभावित किया। पूरे नाटक में उसको चुप ही रहना था और आखिर में ही एक दो डॉयलॉग था। लेकिन पूरे नाटक में उसके हाव- भाव ही कुछ ऐसे थे कि पूरा ध्यान उस पर चला गया। और भी कई नाटक देखे जिसमें शिव के अभिनय से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी।
मैं नाटक पर लिखते हुए शिव वर्मा के रोल में देखकर सिर्फ शिव पर नहीं लिख सकती। मुझे शिव के पिछले रोल भी याद आते हैं। आर्ट फिल्मों के अभिनेता की झलक दिखती है उसमें। नाटक के दौरान समझ में आया कि असली किरदार तो निर्देशक निभाता है। 25 -26 लोग अपने- अपने किरदार पर अलग अलग तरीके से काम कर रहे थे। लेकिन एक नाटककार के तौर पर रोहित सब पर काम कर रहे थे। मुझे नाटक के दौरान लगातार यह एहसास सालता रहा कि कि मेरा एक छोटा सा किरदार है।अगर इसी को ठीक से नहीं कर पाई। निर्देशक की इतनी मेहनत, मेरा इतना समय सब जाया हो जाएगा। नाटक की शुरूआत की खराब हो गई तो सब चौपट हो जाएगा। क्योंकि वो नाटक की परिस्थितियों की ओर ले जाना वाला पहला सीन है। जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद एक और का दुख उसका गुस्सा उसको ठीक उसी तरह से जी लेना बहुत जरूरी था।
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व्यक्तिगत जिंदगी नाटक पर हो रही थी हावी
बीच में कई दिन घर रहने के बाद जब मैं वापस आई तो मुझे फ्लोर पर उतारा गया। मैंने एक दो दिन ठीक-ठाक कर भी लिया। फिर तीन से चार दिन मैं लगातार बहुत खराब करती रही। उस परिस्थिति को महसूस ही नहीं कर पा रही थी। मेरी व्यक्तिगत जिंदगी यहां पर काफी हद तक प्रभावित कर रही थी। मैं कुछ-कुछ प्रेम में पड़ रही थी और दिमाग उससे इतर कुछ भी सोच नहीं पा रही था। और दिमाग के पेंच को कसना जरूरी समझा और फिर खुद को किसी तरह स्थिर किया।
नाटक के एक दो दिन पहले तक की रिहर्सल में कुछ-कुछ सुधार हुआ। और आखिर के दिन चरित्र को जीने का मसला था मैंने उसे जीने की कोशिश की। भगत सिंह शहादत दिवस के दिन ही पाश की भी हत्या हुई थी। मेरे दिमाग में नाटक के संवाद जिसमें कुछ भगत सिंह और कुछ शिव वर्मा के घूमते रहे। भगत सिंह पर ही गीत ए भगत सिंह तू जिंदा है, और पाश की कविता हम लड़ेंगे साथी घूमती रही। शऱीर में झुरझुरी पैदा होने लगती। किसी साथी ने पूछ भी लिया था कि ठंड लग रही है क्या लेकिन मुझे ठंड नहीं लग रही थी..मेरे शरीर पर जो दाने उभर आए थे उसमें एक दुख था, आक्रोश था, उत्तेजना थी आंसू थे…हालांकि, मैंने इससे पहले कभी अभिनय किया नहीं और इस तरह का अनुभव भी नहीं है कि बेहतर अभिनय कैसे किया जाता है फिर भी मैंने उस वक्त को जीने की कोशिश की। मैं भीतरी तैर पर जिस स्थिति में थी स्टेज पर आकर मैंने उस चीज को प्रकट किया।
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नाटक के शुरुआत में पढ़ा गया रोहित वेमुला का खत 
जयदेव जब भगत सिंह से पूछता है कि तुम मरने जा रहे हो सरदार, दिल से बोलना तुम्हें इस बात का अफसोस तो नहीं है ? तब भगत सिंह का जवाब कि अपना काला पानी भोगने के बाद जेल से निकलना..एक खूबसूरत- सी लड़की से शादी करना..4-5 गोल मटोल बच्चे पैदा करना और कभी- कभी उन्हें सुनाया करना कि तुम्हारे ऐसे भी चाचा लोग थे। उस वक्त हमएकदम से जिंदा हो जाया करेंगे। इसी नाटक की शुरूआत में रोहित वेमुला का पत्र भी प्रयोग के तौर पर पढा गया था। जिसमें कहा गया था कि मैं लेखक बनाना चाहता था लेकिन आखिर में सिर्फ एक पत्र ही लिख पा रहा हूं। मैं पहली बार आखिरी पत्र पढ रहा हूं।
दोनों के आखिरी वक्त को मैं एक ही तरह से याद कर रही हूं। सारी लड़ाइयां सारे संघर्ष और आखिर में हाथ में कुछ नहीं रह पाता..संघर्ष करते करते मरने वालों को अक्सर भुला दिया जाता है अगर याद रखा भी जाता है तो सिर्फ उसका नाम उसका मकसद इच्छाएं कहां याद रह पाती हैं लोगों को। भगत सिंह और वेमुला दोनों का जाना भीतर एक अजीब स्थिति पैदा कर देता है। नाटक करते-करते भूल जाती थी नाटक का हिस्सा हूं। तमाम आक्रोश दुख उदासनीनता तो कभी गजब की लड़ने की इच्छाएं जागती रहीं।
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23 साल 3 महीने 26 दिन की जिंदगी…
दूसरों के डॉयलॉग बोलते हुए सुनती तो कई बार उन परिस्थितियों में पहुंच जाती। नाटक की रिहर्सल के दौरान कई बार बोर हो जाती। वही डॉयलॉग रोज रोज चल रहे हैं। लेकिन फिर अचानक भगत सिंह के रूप में यदुवंश प्रणय की आवाज आ जाती..23 साल 3 महीने 26 दिन की जिंदगी…, एक अन्य डॉयलॉग इसांन के लिए हमारा इश्क किसी से भी कम नहीं है। इसलिए इंसान का खून करने की ख्वाइश रखने का सवाल ही नहीं उठता। हमारा एक मात्र उद्देश्य था कि एक मात्र धमाका करें क्योंकि बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत होती है।
बूढे शिव वर्मा के रूप में शिव की आवाज आती वो वक्त भी एक तथ्य था ये वक्त भी एक तथ्य था। और अन्य डॉयलॉग मैं आज भी जिंदा हूं उस भारत वर्ष में जिसका सपना वो देखा करता था। फिर मैं नाटक को गौर से देखने लगती जैसे कि ये वही दौर चल रहा हो। बटुकेश्वर दत्त शिव वर्मा दो बूढे जो अपनी अपनी वर्तमान की यात्रा कराकर फिर लौट जाते आजादी के दौर में…हो सकता है मेरी बातें अति भावुकतापूर्ण हों लेकिन मैं ठीक इसी तरह से महसूस करती रही।
प्रशासन से सहयोग ना मिल पाने से हुई कई दिक्कतें
नरेश गौतम शुरू शुरू में खूब डायलॉग भूल जाया करते। क्योंकि उन पर प्रोडक्शन मैनेजर की जिम्मेदारी भी थी। लेकिन आखिर तक आते आते उन्होंने एक इलीट क्लास के मार्कंड त्रिवेदी (जवान) का रोल बहुत बेहतरीन तरीके से निभाया। प्रोडक्शन मैनजेर को काफी दिक्कतें हुईं नाटक में एक इलीट (मार्कंड त्रिवेदी) का किरदार निभाने वाले नरेश गौतम को असल में फंड इकट्ठा करने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। प्रशासन की ओर से सहयोग ना मिल पाने से काफी दिक्कतें हुईं, लाइट और स्टेज का अरेंजमेंट इन सबमें और कैम्पस से भी इस बार काफी कम मात्रा में फंड इकट्ठा हो पाया। नरेश का भी रंगमंच से पुराना जुड़ाव रहा है। बच्चों के साथ भी वर्कशॉप करते रहते हैं। सबसे जरूरी बात नरेश गोतम ने सबकी चाय और खाने का खूब खयाल रखा।
यदुवंश प्रणय ने भगत सिंह का किरदार अगर इतनी अच्छी तरह से निभाया तो इसका कारण ये भी था कि भगत सिंह पर उन्होंने काफी अध्ययन किया है और भगत सिंह पर अच्छी जानकारी रखते हैं। इसलिए वैचारिक तौर पर भी भगत सिंह लग रहे थे नाटक में। यदुवंश प्रणय और नरेश गौतम, आशीष कुमार, और रोहित कुमार कैम्पस के ऐसे विद्यार्थियों में से हैं जो हर छात्रों से हक के लिए हर मुद्दे पर लड़ने के लिए हमेशा खड़े रहते हैं। काफ्का कैफेटेरिया को जब हटाया जा रहा था तो अन्य छात्रों के साथ-साथ ये दोनों लोग भी बराबर सक्रिय रहे काफ्का कैफेटेरिया को बचाने के लिए। तब सबकी मिली-जुली कोशिश का असर भी दिखा काफ्का कैफेटेरिया को शिफ्ट करने के लिए प्रशासन ने दूसरी जगह दे भी दी। कोई नाटक तब ज्यादा प्रभावी हो जाता है जब आप सोचने समझने वाले हों। सिर्फ अभिनय की तकनीकी जानकारी से काम नहीं चलता।

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इंसानी भावनाओं के प्रेम को समझने वाला शख्स था भगत सिंह
भगत सिंह जैसे नाटक को करने के लिए इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी कि भगत सिंह को समझा जाए। उनकी विचारधारा को समझा जाए, उन परिस्थितियों को समझा जाए। समझा जाए इस बात को कि भगत सिंह किस तरह से सोचते थे। वो सिर्फ फांसी पर झूल जाने वाला शख्स नहीं था जैसा कि अमूमन उसे बता दिया जाता है। वो इंसानी भावनाओं के प्रेम को समझने वाला शख्स था। गोले बारूद की संस्कति उसे पसंद नहीं थी बल्कि वो तो इसको एक बदलाव के हथियार के तौर पर देखता था बस। नाटक में भगत सिंह के इस पक्ष को उभारना था। उभारा भी गया।
निर्देशक रोहित कुमार ने कई गेम्स और एक्सरसाइज करवाईं। जिसमें एक एक्सरसाइज ये भी थी कि आपको अपने कैरेक्टर के बारे में सोचना है आंख बंद करके। जैसे मैं एक औरत के किरदार में हूं तो कैसे-कैसे मेरा परिवार रहा होगा। भगत सिंह हूं तो कैसा सोचूंगा। एक कोमा में जाने वाली एक्सरसाइज भी थी। जिसमें सबको अपने-अपने बारे में था जिंदगी की शुरुआत से लेकर अंत तक। इन सबका नाटक के किरदार में डूबने में मदद मिली।
नाटक करते हुए कुछ शब्दों को हटाया भी गया जिसमें महिलाओं की दृष्टि  से आपत्तिजनक थे। लैंडियों के लंहगे सूंघते नजर आओगे, या चंद्रशेखर आजाद को गाली देते हुए दिखाना, आनरेबल लेडी का नाजायज बच्चा वाला डायलॉग। रोहित जी ने पहले कुछ वार्निंग वाले अंदाज में कहा कि जिसको नाटक छोड़ के जाना हो पहले ही जा सकता है क्योंकि वो बाद में सबको डांटेंगे भी। मुझे थोड़ा डर लगा कि कैसे डांटेंगे। लेकिन पूरे नाटक में ऐसा बहुत ही कम हुआ कि वो बहुत नाराज हुए हों और हुए भी तो अपने गुस्से को बहुत ही नरम लहजे में जाहिर किया। 25 लोगों की टीम के साथ इतना बड़ा नाटक करना बहुत जोखिम का काम था यह नाटक लगभग डेढ घंटे का रहा। हर रोज कोई ना कोई गायब रहता और उसकी प्रोक्सी कर ली जाती। रोहित कभी कभी झुंझलाते लेकिन फाइनली फिर  से सब के सब नाटक में उसी तरह से लग जाते पूरे जुनून के साथ । सबके साथ उनका व्यवहार वाकई में बहुत ही कूल कहा जाएगा।
नाटक के असिस्टेंट डायरेक्टर रहे आशीष कुमार कुछ कुछ खामोश से रहते। लेकिन रिहर्सल में सबको ऑब्जर्व करते और और रह बताते कि कहां कमियां रह गईं, किस काम को किस तरह से करना है। विश्वविद्यालय के ही थियेटर डिपार्टमेंट में पीएचडी कर रहे आशीष लगातार नाटकों में सक्रिय रहते हैं। नितप्रिय प्रलय भी बराबर गाइड करती रहीं टीम को।उनके पास भी अभिनय का अच्छा–खासा अनुभव भी है। मैंने उनका खिलौना नाटक देखा है जिसमें उन्होंने अच्छा अभिनय किया है।

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हम तीनों मित्रों ने किए नाटक के तीन महिला पात्र
गगन दमामा बाज्यो नाटक में महिला पात्र मात्र तीन ही हैं। एक भगत सिंह की मां विद्यावती। दूसरी भगत सिंह की प्रेमिका सोहनी। तीसरी औरत जो कि पंजाब की तमाम माओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। नाटक की तीनों महिला पात्रों का किरदार हम तीनों दोस्तों आरती शर्मा, सागरिका नायक और मैंने किया। इस बीच हम तीनों की दोस्ती कुछ और गहरी हो गई।
आरती में गजब की ऊर्जा है पता नहीं कहां से लाती है। लगातार बोलते रहने और काम करना। नाटक में ये करने से बाज नहीं आई। इसका फायदा ही हुआ नाटक पर उसकी भी बराबर नजर रहती। कोई नहीं आता तो कई पुरुष किरदारों की अच्छी प्रॉक्सी कर लेती। नाटक का एक और सदस्य अर्पित राज तो सबकी प्रॉक्सी करता और सारे डॉयलॉग उसे याद भी हो गए। उसे मजाक में प्रॉक्सी मास्टर कहते हैं सब। आखिर में उसका ये हुनर काम भी आया जब एक किरदार ने अचानक किसी वजह से नाटक छोड़ दिया तो अर्पित ने उस किरदार को बहुत अच्छे से करके दिखाया।
बटुकेश्वर दत्त के किरदार में गौरव चौहान जो वास्तव में अपने हाव भाव से बिल्कुल बूढे लग रहे थे। गौरव थियेटर में लगातार सक्रिय रहा है। सुखदेव के किरदार में सोरभ गुप्ता का अभिनय खासकर जब गुस्सा होता तो बहुत वास्तविक लगता। राजगुरु के भोलेपन को अमित कुमार ने बखूबी निभाया। इसके अलावा बूढा मार्कंड( आशीष गौतम) जेलर (आशुतोष), और हर छोटे-बड़े किरदार ने नाटक को सफल बनाने में अहम भूमिका निभाई। आजाद के किरदार में शिवम घाटे से बेहतर कोई लग ही नहीं सकता था। तो मां-पिता के किरदार में पलाश किशन और सागरिका नायक भी अच्छे लग रहे थे। पलाश को सभी लोग मजाक मजाक में रिहर्सल के दौरान पैरी पौणा बाऊजी कहते। और आखिर तक आते-आते सब लोग एक दूसरे के असली नाम के बजाय किरदार के नाम से ही संबोधित करने लगे। बनर्जी का किरदार कर रहे रामलखन ने नाटक से संबंधित प्रोपर्टी बनाई जैसे बंदूक टोपी आदि।

संगीत का मामला दिल और लाइटिंग का जुड़ा है स्टेज से
संगीत का मामला तो दिल से जुड़ा हुआ है और लाइटिंग का स्टेज से। गाना पर गजेंद्र की आवाज ने कमाल किया और काफी कोशिशें कीं कि सबके सुर ठीक से बैठ जाएं लेकिन होता है कि साथ में सब ठीक गाते बाद में फिर से बेसुरेपन पर आ जाते। लेकिन आखिर में उनकी कोशिश कामयाब रही और सबने ठीक ठीक गा लिया। बैकग्राउंड म्यूजिक विवेक कुमार ने दिया। किसी जरूरी काम के कारण नाटक के निर्देशक रोहित कुमार को जाना पड़ गया तो इस बीच सारी जिम्मेदारी आशीष कुमार, नरेश गौतम और यदुवंश प्रणय ने संभाली। निर्देशन में सहयोग कि लिए और जेएनयू से जैनेंद्र को अंतिम समय में उन्होंने भी कुछ अभिनय की कुछ बारिकियों पर काम किया। लाइट सुहास ने दी।
भगवती भाई के रूप में साकेत बिहारी हमेशा से भगवती भाई जैसे ही लगते। समझदार और बड़े। वो तो जैसे उस किरदार के लिए ही बने हुए हों। इतने महत्वपूर्ण नाटक में दुर्गा भाभी का किरदार ना लेना अखरता है जो कि भगत सिंह और अन्य लोगों के साथ बराबर की सहभागी थीं। हमारी टीम ने जब नाटक का मंचन किया तब भी दुर्गा भाभी का किरदार नाटक में नहीं लिया जा सका। मंच पर गायक और गिटारिस्ट के रूप में रवींद्र, ढोलक में धनंजय, हारमोनियम में चेतन, गायक गजेंद्र। इसके अलावा बहुत से साथियों ने सहयोग किया।