प्रेमचंद एक ऐसा नाम है जिसको जानने के लिए
साहित्य का गहन अध्येता होने की जरूरत नहीं है। प्रेमचंद को वे लोग भी जानते हैं
जिन्होंने साहित्य को बहुत नहीं पढा है और बहुत लगाव न होने के बावजूद उसे पढते
हैं और पसंद करते हैं। प्रेमचंद का साहित्य अपने ही गांव घर का जीवन लगता है। उसके
पात्रों की समस्या तकलीफ त्रासदी अपनी ही त्रासदी लगती है।
किताब में जैसे खुद ही
कहीं जी रहे हों। बचपन में पाठ्यक्रम में प्रेमचंद की कहानी “दो बैलों की कथा” पढी थी। एक बार पढने के
बाद फिर कई बार उसको पढा। जितनी बार वो कहानी पढी मुझे चाचा-चाची को दो बैल ही
दिमाग में बैठ जाते। आज भी इस कहानी से पड़ोस के वही दो बैल आंखों में याद आ जाते
हैं। और झूरी के नाम पर चाचा की याद। साहित्य यही होता है। उसके बाद गुल्ली डंडा,
ईदगाह कहानी, गोदान और कुछ कुछ पढा लेकिन जो भी पढा वो उसी तरह जीवन में बसा है। ईदगाह
तो बल्कि चिमटे वाली कहानी से याद है।
कुछ रचनाओं को पढते हुए हमेशा से लगता रहा है
कि काश इस लेखक से मुलाकात हो पाती। रचना के बारे उस लेखक से जान पाते में रचना के
बाहर के उसके जीवन को। प्रेमचंद को पढकर भी यही लगता था। काश मैं प्रेमचंद के काल
में पैदा हुई होती और प्रेमचंद से मिल पाती। या प्रेमचंद इस काल के होते खैर यह सब
तो हो नहीं सकता अब।
प्रेमचंद से मिलने की ख्वाइश तो पूरी होने से
रही लेकिन तीन साल पहले जब मैं जुलाई यानी 2014 में बनारस जाना हुआ। मालूम हुआ कि
लमही बस कुछ ही दूरी पर है। कुछ खुशी हुई लगा प्रेमचंद ना सही उनके गांव उनके घर
को देख पाऊंगी और चल पड़ी एक मित्र के साथ। हालांकि तब और अब में बहुत फर्क आ चुका
है। प्रेमचंद के उपन्यासों वाला गांव नहीं बचा है इसके बावजूद भीतर से बहुत खुशी
हुई। वहां जाकर पता चला कि उनकी याद में वहां पर ‘प्रेमचंद स्मारक न्यास” बनाया गया है और उनके
घर को पुस्तकालय में बदल दिया गया है।
इसे सुरेशचंद्र दुबे जी ही संचालित करते
हैं। इसके अलावा वहां उनका हुक्का, चरखा, उनसे संबंधित बहुत सी वस्तुएं और स्मृतियाँ
मौजूद हैं। उनका
हुक्का चरखा समेत वहां कई चीजें मौजूद हैं। पहले तो थोड़ा हिचकिचाहट हुई, कैसे,
किससे बात करें पुस्ताकलय के बारे में। लेकिन सुरेशचंद्र दुबे जी ने खुद ही बातें
आरंभ की। प्रेमचंद का घर दिखाया उनका कमरा दिखाया जहां बैठकर अक्सर प्रेमचंद लिखा
करते थे।
सुरेशचंद्र ने बताया कि यहां आकर बहुत से लोग बातचीत करते हैं आश्वासन
देते हैं कि पुस्तकालय के लिए मदद करेंगे लेकिन कोई इसकी मदद को आगे नहीं आता। सारे
लोग प्रेमचंद पर पत्र पत्रिकाओं में लिखते तो खूब हैं, बढा चढाकर बातें की जाती
हैं लेकिन पुस्तकालय और ट्रस्ट की मदद कोई नहीं करता। यहां तक कि प्रेमचंद के
परिजन भी इसमें कोई रुचि नहीं दिखाते वो बड़े शहरों में रह रहे हैं और प्रेमचंद को
भूल चुके हैं।
सुरेशचंद्र जी ने हमसे भी कहा था कि हम
पुस्तकालय के लिए पत्रिकाएं और पुस्तकें भेजें। पूरे जोश के हमने भी सोच लिया कि
हम उन्हें जरूर संपर्क करेगें और किताबें और पत्रिकाएं भेजेंगे। लेकिन औरों की तरह
हम लोगों के लिए भी यह बात भी आई गई हो गई। आज जब तीन साल बाद लिख रही हूं तो याद
आ गया सब कुछ। खैर सुरेशचंद जी से मुलाकात काफी अच्छी रही और उन्होंने प्रेमचंद के
संबंध में बहुत सारी अन्य बातें भी बताईं।
आखिर में उन्होंने वहां की मसाला चाय और
बनारसी पान के साथ विदा किया, और हम लोग अपना आखिरी वादा आज भी पूरा नहीं कर पाए।
आगे भी पूरा कर भी पाएंगे या नहीं ये अलग बात है। लेकिन प्रेमचंद मेरे जेहन में
हमेशा झूरी, हीरा- मोती, हामिद और होरी के रूप में जिंदा हैं।