Sunday 7 May 2023

हां मुझे फर्क पड़ता है…

कुछ महीने पहले बीबीसी पढ़ते हुए एक स्टोरी पर नजर गई जो ईरानी महिलाओं पर थी। ईरान में महिलाओं को शादी से पहले वर्जिनिटी प्रमाण पत्र बनवाना पड़ता है जिससे ये साबित हो सके कि उन्होंने किसी के साथ सेक्स नहीं किया है। हालांकि वहां पर इसका विरोध भी हो रहा है। अफगानिस्तान में तालिबान शासन आने के बाद महिलाओं की स्थिति तो जगजाहिर है। जिंदगी को आम तरीके से जीने की कोशिश के बावजूद देश-दुनिया में होने वाली ऐसी तमाम घटनाएं बेचैन कर देती हैं, आखिर महिलाओं के साथ ही ऐसा क्यों। आमतौर पर ऐसी चीजों को लोग सामान्य मानते हैं और ऐसा सोचने वालों में महिलाएं भी शामिल होती हैं। 

तमाम लड़कियों की तरह मुझे भी घर, परिवार समाज में भेदभाव का सामना करना पड़ा। मेरी बुआ की पांच बेटियां और एक एक बेटा है। दादी अक्सर दुखी मन से कहा करतीं, बेटी क्या बुसा बोरी (भूसे की बोरी) हैं। ये उस पहाड़ी समाज की स्थिति है जहां महिलाएं ही अधिकतर काम करती हैं घर, खेती से लेकर जंगल तक के। मैं चार भाइयों में अकेली बहन हूं, लोग अक्सर कहा करते हैं वाह तुम तो बहुत खुशकिस्मत हो हालांकि इसका तर्क मुझे आज तक समझ नहीं आया। मैंने अपने पूरे बचपन में घरेलू हिंसा, लड़ाई-झगड़े का माहौल देखा जो कि बहुत ही बुरा था।

पहाड़ों में पुरुष अगर काबिल नहीं हो तो चल जाता है लेकिन महिलाओं का सभी कामों में, खास कर खेती में पारंगत होना बहुत जरूरी है। गांव भर में दो-चार पुरुष ऐसे होते ही हैं जिन्होंने पूरी जिंदगी कभी कुछ काम नहीं किया, तब भी उनकी जिंदगी किसी तरह गुजर ही जाती है। लेकिन इस तरह की महिलाओं के लिए जीवन बहुत ही दुखद होता है, जिसमें मेरी मां भी शामिल हैं। 

मैंने देखा लड़के बड़े होने पर भी खेतों में खेलने जाते लेकिन लड़कियों की खेलने की उम्र बहुत ही सीमित सी होती है। मुझे बचपने की याद है, हम खाली समय में खेतों में खेला करते। जैसे-जैसे हम बड़े होते गए लड़के तो खेतों में तब भी खेला करते, लेकिन लड़कियां अब खेलों से गायब होने लगीं। मेरी सहेलियों पर काम का बोझ बढ़ने लगा। पहले शौक से छोटे घीड़े में घास काट कर ले लातीं फिर धीरे-धीरे घीड़ा बड़ा होने लगा, बंटे, गागर का आकार भी बढ़ने लगा। मैं भी सहेलियों के साथ खेतों जंगलों में जाती। फिर धीरे-धीरे वे अपने ससुरालों को जानें लगी। सहेलियों के ससुराल जाने के बाद मैंने हम उम्र भाभियों से दोस्ती करनी शुरू कर दी। 

शिवरात्रि के पहले दिन हमारे यहां कई जगहों पर मेला लगता है। बचपन में पुजार गांव जाया करते जो कि बिल्कुल बगल का गांव था। फिर कुछ बड़े होने पर देवल मेला जाने का मन करता। अपने चार भाई तो हैं ही, अपने अगल बगल के ढेर सारे कजन भाई ऐसे भी वक्त में सबसे ज्यादा प्रकट होते। वे सब हमें देवल मेले में जाने के लिए मना किया करते। दरअसल देवल मेले में ज्यादा भीड़ और धक्का मुक्की होती। कई बार लड़के, लड़कियों के स्तनों को भी छूकर निकल जाते। लेकिन ये भाई लोग खुद भी उसी मेले में जाने के लिए लालायित रहते। जाहिर है लड़कियों को छेड़ने वाले लड़के भी हम में से किसी ना किसी के भाई हुआ करते हैं। लेकिन उन्हें कभी कोई मना नहीं करता मेला जाने के लिए।

हम लड़कियां भी कहां कम थीं, छुप-छुपाकर जैसे-तैसे देवल मेले जाया करती। ऐसा करने के लिए कई बार डांट और मार भी खानी पड़ती। भाइयों की भी घर में अलग ही सत्ता होती है। कई बार मांओं या पिताओं को भी जिन बातों से ऐतराज नहीं होता, भाई लोग उन मामलों में भी अपनी वीटो पावर इस्तेमाल कर लेते हैं। 

मेरे मंझले भइया खूब घूमा-फिरा करते, घर में टिकना उन्हें कभी आया ही नहीं। मुझे लगता वाह ये कितना अच्छा है, मैं भी उसी तरह रहना चाहती थी। लेकिन मुझे वो कई बार टोकते कि कम घूमा कर। कुछ साल मैं दो बड़े भाइयों और दादी के साथ देहरादून में पढ़ाई के लिए रही। स्कूल से घर आने के रास्ते में  सहपाठी लड़को के साथ दिख जाने पर कई बार मार भी खाई। मैं घर से स्कूल और स्कूल से घर का रास्ता तय करती, बस इतना ही जान पाई मैं देहरादून के बारे में। भइया लोग बेइंतहा पाबंदियों में रखते। दादी भी खौफ में रहतीं कि लड़की है कुछ हो ना जाए। भइया लोग ग्रेजुएशन करने गए थे जाहिर है उनकी खुद की उम्र भी कम ही थी। वो उस वक्त मुझे लेकर अतिरिक्त जिम्मेदारी की भावना से भरे हुए थे। लड़की की जिम्मेदारी का मतलब होता है उसे संभाल कर रखना। ये जिम्मेदारी कैसे निभाई जाती है, ये बात कोई भी लड़की बता सकती है। 

अतिरिक्त पाबंदी के चलते मेरा लड़कों की तरफ आकर्षण बढ़ा। हम लोग देहरादून से घर साल में एक बार आया करते गर्मियों की छुट्टियों में। अक्सर सोचती, मैं बड़ी हो जाऊंगी तो अकेले यात्रा करूंगी और अगल-बगल बैठने वाले लड़कों से दोस्ती और बातें किया करूंगी। हालांकि जब से अकेले यात्रा करनी शुरू की तब से ऐसे ख्याल नहीं आये। 

लड़की होने के नाते मुझे अगर किसी चीज से वंचित रखा जाता या किसी भी तरह का भेदभाव होता तो मुझे वो समझ आ जाता, मुझे एहसास होता कि ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन कई बार लड़कियों को लगता कि भाई हैं, ठीक ही कह रहे हैं, लड़कियों को नाक नहीं कटानी चाहिए, अगर कुछ हो गया तो जैसी तमाम-तमाम बातें।

छुटपन से ही मेरा मन होता था कि मैं खूब पढ़ाई करूं और किसी बड़े से शहर में जाकर स्वतंत्र रूप से रहूं। लेकिन ऐसा होगा, मेरे लिए यह सोच पाना भी बहुत मुश्किल था। खासकर बड़े भाइयों के सख्त रवैये के बाद ये और मुश्किल लगता। लंबगांव डिग्री कॉलेज में मेरे एक शिक्षक थे, जिन्होंने बीए के दौरान मुझे पढ़ाया और लगातार प्रेरित करते रहे कि मैं आगे की पढ़ाई किसी शहर में जाकर करूं। ऐसा उन्होंने कई महीनों तक किया और मुझे सिलेबस के इतर की किताबों पढ़ने की भी सलाह देते रहे। एक दिन जब मुझे समझ में आया कि यह मुमकिन है, तो फिर मैंने वही बात घर में पिता से दोहरानी शुरू कर दी और लगभग दो ढाई साल तक मैं लगभग घर वालों से इस ख्वाइश का जिक्र करती रही। आखिरकार मुझे इसकी अनुमति मिल गई।

साल 2012 में, मैं जब पढ़ाई के लिए माखनलाल यूनिवर्सिटी, नोएडा आई तो यह मेरे लिए किसी बड़े सपने का सच होने जैसा था। पहली बार साउथ दिल्ली की चौड़ी-चौड़ी सड़कों से गुजरते हुए मैं खुद को एक अलग ही दुनिया में महसूस कर रही थी। अब मैं घर से दूर आजाद महसूस कर रही थी। लेकिन शुरुआती दिनों में साथ में डायरी लेकर घूमा करती जिसमें पीजी का पता और कुछ जरूरी नंबर रहते। रात होने से पहले मैं पीजी में आ जाया करती क्योंकि मुझे रात में बाहर निकलने से डर लगा करता।

बाद के दिनों में मैं मंडी हाउस में नाटक देखने जाने लगी और मुझे अकेले ही जाना पड़ता। नोएडा सेक्टर 15 मेट्रो स्टेशन आते-आते कभी 9.30 या कभी 10 बज जाया करते। मेट्रो स्टेशन से मुझे ऑटो से पीजी जाना होता, उस वक्त तक महिला यात्रियों की संख्या काफी कम हो जाती। जैसे ही कोई महिला दिखती तभी मैं सुरक्षित महसूस करती। 

लेकिन घूमने और नाटक देखने का शौक कुछ ऐसा हुआ कि डर लगने के बावजूद मैं ऐसा करती। एक दोस्त था जो घूमने जा तो सकता पर वो जॉब भी करता था। लड़कियां अक्सर अपने एक-एक मिनट का हिसाब घर वालों को दिया करतीं या घर वाले उन से लिया करते, तो उनके लिए भी जाना मुश्किल था। एक और दोस्त था, जो था तो मूल रूप से उत्तराखंड का, लेकिन दिल्ली में पला बढ़ा था। जब मैंने कहा साथ में घूमने के लिए तो उसका जवाब भी कुछ अजीब ही था.. देख तू है लड़की, ये दिल्ली बहुत खतरनाक जगह है, मैं तेरे साथ नहीं घूमूंगा कहीं।

मैं उन दिनों एक लॉन्ग डिस्टेन्स रिलेशनशिप में थी। उस दौरान के प्रेमी ने अपने कुछ दोस्तों से मेरी भी दोस्ती करवाई जो कि दिल्ली में पत्रकारिता के ही एक दूसरे संस्थान में पढ़ते थे। वहां लड़को के साथ दोस्ती और सामान्य तौर पर रहने की शुरुआत हुई। उसके पहले जितने लड़के मिले थे सब एक अलग तरह की दूरी या नजदीकी बनाते थे। पहली बार लड़कों के साथ दोस्ती इतनी सामान्य लगी। 

मेरे मामले में एक बात यह अच्छी थी बाहर निकलने के बाद मेरे घर वालों ने मुझ पर भरोसा किया और मुझसे कभी भी मिनट-मिनट की हिसाब नहीं लिया। हालांकि इस स्थिति की भी कुछ अलग तरह की मुश्किलें थीं, जिनका जिक्र फिर कभी किया जा सकता है। 

बहुत शिद्दत से नौकरी की शुरुआत कर मुझे फिर से मुझे पढ़ाई करने का मन हुआ तो एमफिल करने वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय चली गई। वहां गर्ल्स हॉस्टल 10 बजे बंद हुआ करता है। हालांकि कई अन्य संस्थानों के मुकाबले ये बेहतर था, लेकिन हमारा भी मन होता कि ब्वाइज हॉस्टल की तरह गर्ल्स हॉस्टल भी रात भर खुले रहें। 

हमारे सामने जेएनयू और हैदराबाद यूनिवर्सिटी के उदाहरण था। कई बार इस पर बातचीत होती कि वर्धा कैंपस छोटा है और सुरक्षित भी। इसे भी रात भर खुला रखा जाना चाहिए। कई बार मन होता रात में लाइब्रेरी में बैठने या कबीर हिल जाने का। लेकिन 10 बजे के बाद यह संभव नहीं था। कई बार एमफिल और पीएचडी करने वाली लड़कियां ही समय ना बढ़ाने के खिलाफ तर्क देतीं, नहीं ऐसा नहीं होना चाहिए। अगर कुछ हो गया तो किसी ने कुछ कर लिया तो। मुझे ये समझ नहीं आता, कुछ कर लिया क्या होता है। ज्यादा से ज्यादा कोई सेक्स कर लेगा, उससे ज्यादा क्या। 

खैर पितृसत्तात्मक प्रैक्टिस इतनी गहरी है कि हमारे गांवों में महिलाएं पानी की गागर सिर पर लाती हैं और पुरुष कंधे पर। मैंने जब पहली बार सिर पर गागर लाने की कोशिश की तो मैं चल नहीं पाई। मैंने फिर पानी की गागर कंधे पर रखी। ये मेरे लिए वाकई बहुत ही आरामदायक तरीका था पानी ढ़ोने का। उसके बाद से आज तक मैं कंधे पर ही पानी लाती हूं। शुरू-शुरू में लोग हैरान होते या मजाक बनाते कि लड़की होकर कंधे पर पानी ला रही है, लेकिन कुछ दिनों बाद सब स्वीकार्य हो गया। लेकिन नए लोग जब मुझे इस तरह से देखते है तो वो अभी भी हैरान होते हैं।

मैं कई बार बैग को भी कंधे पर उठाकर चल देती हूं क्योंकि ऐसे सामान ढ़ोना आसान होता है। मेरे पार्टनर जो कि बिहार से हैं, यह देखना उनके लिए यह नया था। प्रेम के शुरुआती दिनों में वो अक्सर मेरी इस आदत पर बहस कर लेते। वो कहा करते, कुछ भी करती हो- कैसे भी रहती हो, कंधे पर सामान क्यों उठाया लोग क्या कहेंगे आदि-आदि। तब मैं समझ नहीं पाती थी इसमें गुस्सा करने वाली क्या बात है। फिर कोरोना का दौर आया, उन दिनों मैं मुनिरका में रहा करती। एक दिन मेरे पार्टनर बंगाल से बस की यात्रा कर दिल्ली आए। उस दिन दिल्ली में खूब बारिश हो रही थी, मुनिरका की गलियों में नाले की तरह पानी बह रहा था और एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़ रहा था। उस दिन भी मैंने अपने पार्टनर का भारी सा बैग कंधे पर रखा और किसी तरह बच-बचाकर कमरे में पहुंचे। उस दिन बैग को खींचकर ले जाना नामुमकिन था, उस दिन के बाद उन्होंने कभी इस चीज के लिए नहीं टोका। 

तब मुझे उनका इस तरह से नाराज होना नहीं समझ आता था। कुछ महीने पहले मेरी शादी हुई और ससुराल गई तो मुझे समझ में आया कि यह दो समाजों का फर्क था। 


हम लोगों ने पहले कोर्ट मैरिज की और उसके बाद सामाजिक विवाह। हम लोगों ने तय किया था किसी तरह का कर्मकांड या पूजा पाठ नहीं करेंगे। हमारे परिवार इसके लिए सहमत थे। इसमें हम दोनों के पिताओं की अहम भूमिका थी। ऋषिकेश में शादी हुई जिसमें हम लोगों ने एक दूसरे को माला पहनानी थी और उसके बाद खाने का कार्यक्रम था। मेरी सास और ननद सिंदूर लेकर स्टेज के सामने अड़ गईं उनका गुस्सा मेरे लिए बड़ा अजीब था। वो जबरदस्ती सिंदूर लगवाना चाह रहे थे और ऐसा तब हुआ जब कि पहले से पूरा मामला स्पष्ट था कि ये सब नहीं करना है। 

मेरे रिश्तेदार भी हैरान थे मैं सिंदूर क्यों नहीं लगवा रही। सब आकर समझाने लगे। हालांकि मेरा परिवार हमारे फैसले के साथ था। मेरी सास ने मेरी बड़ी भाभी से कहा कि वे हमें मनाएं, तो भाभी का कहना था जब वो नहीं चाहते तो जबरदस्ती क्यों करना चाहते हैं। इस तरह सिंदूर नहीं करने के लिए लिए भी छोटा -मोटा हंगामा हो गया। 

मेरे पिता के अचानक चले जाने के बाद माहौल अजीब था, हम सब दुखी थे, इसके बाजवूद शादी हो रही थी। ये अलग ही तरह की स्थिति थी मेरे लिए। मेरा नया जीवन शुरू हो रहा था मैं कुछ उत्साहित भी थी लेकिन ये बड़ी अजीब शुरुआत थी। पार्टनर के घर वाले गुस्से में तुरंत खाना खाकर होटल चले गए। इस तरह मेरे पार्टनर वेडिंग हॉल में अकेले रह गए और इधर मेरे घर वाले और कुछ गिने -चुने रिश्तेदार थे। हमारी शादी और रिसेप्शन में एक हफ्ते का फासला था। विदाई के वक्त मैंने कुर्ता और जींस पहन ली और जैसे हमेशा रहती हूं वैसे ही रही, कोई अतिरिक्त मेकअप नहीं किया। हरिद्वार से ट्रेन देर रात की थी, सभी लोग हरिद्वार घूमने चले गए। हम दोनों स्टेशन के बाहर रह गए। एक नए सदस्ये को सम्मान देना तो दूर सभी लोग मुझसे दूर-दूर थे। कोई ठीक से बात नहीं कर रहा था मुझसे। मुझे लगने लगा अब तो वक्त ससुराल में बेहद बुरा बीतने वाला था।

मेरे बड़े भइया ने मुझे कुछ दिन पहले कहा था तेरा समाज शादी के बाद शुरू होगा। तूने अभी देखा ही क्या है। और ये बात मैं अभी महसूस कर रही थी। मुझे लगता था शादी के बाद मेरे जीवन में कोई बदलाव नहीं आने वाला लेकिन आ चुका था। सचमुच शादी लड़कियों के जीवन को बदलकर कर रख देती है। हालांकि मैं वर्किंग हूं और मुझे ससुराल में ज्यादा रहना नहीं होगा और इन चीजों का भी सामना नहीं पड़ेगा। तो एक तरह से यह स्थिति मेरे लिए ठीक है। 

ससुराल जाने वाली ट्रेन रात में काफी लेट से आई, तो सब लोग ट्रेन में चढ़ते ही सीधे  सो गए। सुबह उठकर पिछले दिन के मुकाबले माहौल थोड़ा ठीक लगा, लोग थोड़ा बहुत बात कर ही रहे थे। मुझे खाना-पीना सब पूछा गया। 

रात में आरा स्टेशन उतरना था और वहीं से कुछ घंटे की दूरी पर ससुराल है। फिर ट्रेन में ही नई चीजों के लिए बहस शुरू हो गई जैसे घूंघट करना। पार्टनर के घर वाले उन पर दबाव बनाने लगे कि वो मुझे घूंघट के लिए कहें। उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। उनके भाई-बहन कहने लगे कि तुमने हमारे पिता की नाक कटवा दी है। जबकि पिता हमारे फैसले के साथ थे और उन्हें अपनी नाक जैसी कोई चिंता नहीं थी। 

मुझे लगा मैं ही बेवकूफ हूं जो लग रहा था सब सामान्य हो गया। एक लंबे समय तक जिस चीज को लोग मानते आए हैं वो परंपरा एक झटके में कैसे टूट सकती है। फिर से बहस और झगड़ा, हालांकि मैं इससे दूर थी। लेकिन मैं बहुत अजीब महसूस कर रही थी। लोग मुझे अजीब नजरों से देख रहे थे, इन सबके लिए मैं जिम्मेदार थी। अब मुझे लगने लगा बचपन से लेकर अब तक जो महसूस करती आई हूं लड़की होने की वजह से वो कुछ भी नहीं था। अब यहां मेरा कोई नहीं था पार्टनर के सिवा। मेरे दिमाग में घरेलू-हिंसा की घटनाएं घूमने लगीं। खासकर मैं दूसरे राज्य में जा रही थी जहां कोई भी परिचित नहीं था। ट्रेन से उतरने पर मेरे साथी की अपने परिवार के लोगों से बहस हुई। बहन ने रिसेप्शन में आने से इनकार कर दिया। पिता ने किसी तरह से बेटी को मनाया तो उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ आपके लिए आऊंगी इन लोगो से मुझे कोई मतलब नहीं है। 

हम लोग जब ट्रेन से उतर रहे थे तो किसी ने कहा कि औरतें और सामान गाड़ी में ना छूट जाएं। महिलाएं क्या सामान हैं जो स्टेशन आने पर खुद से उतरने का ध्यान नहीं रख सकतीं। और भूलना ही हो तो कोई पुरुष भी भूल सकता है। 

आरा से टैक्सी बुक की गई थी। टैक्सी में मेरी सास ने आकर मुझे कहा सिर पर दुपट्टा रख लो। मैंने मना किया, वो कहती रहीं कि रख लो उतनी ही बार मैंने मना कर दिया। उस वक्त मेरा मन हुआ कि मैं उस टैक्सी से उतर जाऊं। 

मेरे अगल-बगल मेरी जेठानी और देवरानी बैठी थीं। देवरानी ने सिर पर साड़ी का पल्लू रख हुआ था। जेठानी सामान्य तरीके से बैठी थीं, जब सास ने मुझे इस तरह से कहा तो उन्होंने भी सिर पर पल्लू रख दिया। मैं उन्हें बार-बार समझाना चाह रही थी ये नॉर्मल नहीं है, शायद उन्हें लगा हो जो मैं कर रही हूं वही नॉर्मल नहीं है। 

हम देर रात घर पहुंचे। मैं लोवर-टी शर्ट पहनकर सो गई। सुबह हुई तो इस पर भी पेशी हुई। मुझे कहा गया कि यहां ये कपड़े नहीं चलेंगे। साड़ी नहीं तो कम से कम सूट पहननी होगी। ये मेरे लिए नई लड़ाई थी। इस बार जब सास समझाकर थक गईं तो मुझे समझाने की जिम्मेदारी ससुर दी गई। अभी तक हमारे सभी फैसलों में वे साथ थे और हमारा सपोर्ट भी किया। लेकिन अब वो भी शायद थक या हार गए थे। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि सूट पहन लो और दुपट्टा सिर पर रख लो। मैंने फिर से माथा पीट लिया कैसा समाज है ये सिर ढकने को लेकर इतना आग्रह। मैंने कहा कि मैं सूट पहन लूंगी लेकिन सिर नहीं ढकूंगी। हमारे पहाड़ी समाज में इस तरह से नहीं है तो मेरे लिए ये चीज बिल्कुल नई थी, इसलिए यह सब मुझे और ज्यादा असहनीय लगा।

इतना ही नहीं इस एक हफ्ते में मैं घर से बाहर भी नहीं निकली। यहां महिलाएं सामान्य तौर पर घर से बाहर नहीं निकलती हैं। घूमना टहलना तो दूर की बात। सामान भी लाना हो तो घर के पुरुषों से मंगाया जाता है या बच्चों से। पहले दिन तो मुझे लगा मैं यहां एक हफ्ता नहीं निकाल पाऊंगी। लोग आ आकर देखते और नसीहतें देकर चले जाते और मैं लोगों से मिलने से खौफ खाने लगी। मैं लोगों को इग्नोर भी करने लगी। 

रिसेप्शन में हमारे कुछ दोस्त आए। इतने दिन बाद अपने साथ के लोगों से मिलकर मुझे अच्छा लगा। मैंने उनसे वे सारे अनुभव और परेशानियां शेयर की। उनमें से कुछ ने ये निष्कर्ष निकाला मैं ओवर रिएक्ट कर रही हूं। मेरे पार्टनर जो कि अब तक मुझे सपोर्ट कर रहे थे, रिसेप्शन के दिन उन्होंने भी मुझसे बहस कर ली। उनका कहना था कि मैं ओवर रिएक्ट कर रहीं हूं, लोगों को सम्मान भी नहीं दे रही हूं। मुझे अजीब लगा अचानक ये बदलाव कैसे हुआ। हालांकि मुझे अंदेशा था कि दोस्तों के आने के बाद इस तरह से क्यों हुआ, बाद में ये बात स्पष्ट भी हो गई। हमारे उन प्रगतिशील दोस्तों को लग रहा था कि मेरी प्रतिक्रिया अतिवादी है। मैं जिन परिस्थितियों का सामना कर रही थी, मेरे लिए वो सब झेलना मुश्किल था। खास कर घर से बाहर नहीं निकलना और घूंघट देखना मेरे लिए नया था। 

अधिकांश मित्र ऐसे ही समाज से थे तो उनके लिए ये अच्छा भले ना रहा हो लेकिन सामान्य जरूर था। हालांकि दूसरों के मामले में विश्लेषण करना और निष्कर्ष निकालना आसान होता है और उन परिस्थितियों से गुजरना मुश्किल। 

उन सब में सकारात्मक पक्ष यह रहा कि ससुराल की ही कुछ महिलाएं मेरे पक्ष में थीं। उनका कहना था अगर किसी लड़की ने ये सब देखा-जिया ना हो तो कैसे स्वीकार कर ले। कुछ टीएनजर लड़कियां भी मुझसे प्रभावित थीं। मेरे लिए यहां दोनों ही सबक थे, परंपरावादी स्त्रियों और प्रगतिशील मित्रों की समझदारी के अलग-अलग नमूने। 

हालांकि धीरे-धीरे चीजें मेरे लिए थोड़ा सामान्य हुईं। मैंने देवरानी-जेठानी से पूछा आप लोगों को ऐसे रहना खराब नहीं लगता। वो हंसकर रह जातीं, कहती हमको आदत हो गई है और यहां तो सब ऐसे ही रहते हैं। लेकिन मुझे लगता है कुछ तो लगता ही होगा उनको, कुछ नहीं तो इतना तो सोचती होंगी काश लड़की ना होतीं तो ऐसा ना होता। मैं भी बचपन में इस तरह से सोचती थी काश मैं लड़का होती तो इस तरह की चीजों का सामना नहीं करना पड़ता। 

रिसेप्शन के बाद हमारे दो और मित्र हमसे मिलने आए, जो कि मेरे ससुराल के पास के कॉलेज में पढ़ाते हैं। उनकी कोई मित्र हैं जो कि जेएनयू से पढ़ी हैं और बिहार के ही किसी कॉलेज में पढ़ाती हैं। वो सिंदूर, चूड़ी जैसे प्रतीकों से दूर थीं। लेकिन उनके सहयोगियों ने उन्हें सिंदूर लगाने, कंगन पहनने के लिए मजबूर किया। इस तरह की कई कहानियां सुनीं, किसी के मकान मालिक तो किसी के सहकर्मी ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया। वहां पर मुझे लगा ये तो बड़ा भयावह है। दिल्ली जैसे बड़े शहर कुछ मामलों में स्पेस तो देते हैं। 

इस बीच मैंने अपने पार्टनर से शिकायत की तुमने तो नहीं बताया था यहां इस तरह की स्थितियां हैं। मैंने तमाम दोस्तों को फोन घुमाए और उनसे भी यही शिकायत की। दोस्तों का कहना था इसमें कहने जैसा कभी कुछ लगा ही नहीं, यहां ऐसा होता है और हमारे लिए यह सामान्य है। पार्टनर का कहना था कि मेरी बहुत कोशिश के बाद भी अगर ऐसा है तो क्या किया जा सकता है, वक्त के साथ चीजें बेहतर हो जाएंगी। ये तब हुआ जब मैं अपेक्षाकृत प्रगतिशील परिवार में थी। दोस्तों ने बताया कुछ परिवारों में स्थितियां और खराब हैं। 

अब जब मैं लिख रहीं तो मुझे एक दो बार मन किया कि फिर से ससुराल जाना प्लान किया जा सकता है। हालांकि मैं वहां लंबे समय नहीं रहना चाहूंगी।

मैंने रिसेप्शन के दौरान की घटनाओं पर कई बार तसल्ली से सोचा, क्या मैंने वाकई ओवररिएक्ट किया था। लेकिन मुझे हर बार यही जबाव मिला, नहीं मैं सही थी। क्योंकि मुझे या हम में से किसी को भी अगर यह लगता है कि उस तरह की परिस्थितियों में मैं गलत थी, तो हमें अफगानिस्तान, ईरान या अन्य समाजों की आलोचना करने का नैतिक साहस कहां से मिलेगा। 

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7 मार्च 2023 को स्त्रीकाल की वेबसाइट पर प्रकाशित





Wednesday 30 October 2019

उम्मीद का आख्यान रचती मनुष्यता का पक्ष


अंकिता रासुरी
पुस्तक का नाम- मनुष्यता का पक्ष
लेखक का नाम- विपिन शर्मा अनहद
पृष्ठ संख्या- 151
पुस्तक का मूल्य - 450
प्रकाशन- यश पब्लिकेशन 1/10753 सुभाष पार्क नवीन शहादरा
नई दिल्ली, 110032

दुनिया की कोई भी कला अगर मनुष्यता के पक्ष में ना हो तो उसका होना निरर्थक है। युद्ध, प्रेम, संघर्ष जीवन की इन्हीं भावनाओं के इर्द गिर्द घूमती है विपिन शर्मा की पुस्तक मनुष्यता का पक्ष

मनुष्यता का पक्ष किताब इंसानी  मुद्दों पर बात करती है और समस्याओं के खिलाफ एक लेखकीय ताकत को अभिव्यक्त करती है। इस चिंता में वो तमाम लोग शामिल हैं जो समाज में किसी भी तरह से उपेक्षित किए जाते रहे हैं। वैसे भी वर्तमान दौर में पूरी दुनिया में अल्पसंख्यक को अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है। दुनिया भर में अतिरेकी विचारधारा की राजनीति गरमा रही है। स्त्रियों के तो हमेशा की ही तरह अपने संघर्ष हैं। ऐसे दौर में लेखन की भी अपनी जिम्मेदारी होती ही है। असल मायनों में लेखक उसी को माना जाएगा जो ऐसे में आमजन के पक्ष में खड़ा हो।

मनुष्यता के संकट के बीच कविता में अनहद ने भवानी प्रसाद मिश्र, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं के जरिए लेखक और उनकी समाज के प्रति जिम्मेदारी को समझने की कोशिश की है तथा इंसानी हक के लिए रचनाकारों के संघर्ष को समझाया है।

इसके अलावा  सरहद के पार रचना संसार में दुनिया में मौजूद बेहतरीन लेखकों पाब्लो नेरूदा, ग्राबिएल गार्सिया मार्केंज, विस्सावा शिंम्बोर्स्का, गुंटर ग्रास, लैजलो क्रैसना होर्केई, खालिद हुसैनी, अहमद फराज और  परवीन शाकिर को लिया है।

समावेश में नृत्य की दुनिया से अमेरिकी नृत्यांगना इजाडोरा डंकन पर लिखा है जो कि अपनी अलग ही नृत्य शैली के लिए जानी जाती हैं। इसके अलावा इस खंड में अमृता शेरगिल की चित्रकारी और विभाजन पर आधारित फिल्म क्या दिल्ली क्या लाहौर पर लिखा है।इस तरह से पुस्तक में बहुत सी कला विधाओं को शामिल करने की कोशिश की गई है।

पूरे साहित्य की बात की जाए तो कविताओं की एक अलग दुनिया होती है एक लाइन में भी किसी भी बड़े से बड़े मुद्दे को समेटा जा सकता है।अनहद भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं को युद्ध और शांति के खिलाफ उनका मोर्चा मानते हैं और इनकी कविताओं को फैद नाजिम हिकमत, गुंटर ग्रास, अहदम फैज और नेरुदा की कविताओं से जोड़कर देखते हैं। जो तमाम बर्बरताओं के खिलाफ रही है।

लीलाधर जगूड़ी की कविताओं में लेखक बाजारवाद और हिंसा के प्रति चिंताओं को देखते हैं। इसके अलावा लीलाधर जगूड़ी को सस्ती लोकप्रियता से दूर एक गंभीर कवि के रूप में देखा गया है। तो वहीं राजेश जोशी की कविताएं लेखक को उम्मीदों से भरी नजर आती है और उनकी कविताओं में स्वपनदर्शी दृष्टकोण और उम्मीदों से भरा हुआ पाते हैं। जिनमें समाज की तमाम चिंताओं के साथ, इसी समाज में उम्मीद भी नजर आती हैं।

विनोद कुमार शुक्ल को सत्ता केंद्रों से दूरी बनाए रखने वाले कवि के रूप में देखते हैं। इनकी चिंता में गरीब और आम आदमी बना रहता है। पुस्तक में शुक्ल की सब कुछ बचा रहेगा कविता संग्रह से कविताएं ली गई हैं। लेखक ने इनकी कविताओं को निम्न मध्यमवर्गीय लोगों के कष्टों का कोलाज कहा है। लेखक ने वीरेन डंगवाल की कविताओं में पाया कि वे बहुत बड़ी बड़ी चीजों पर लिखने के बजाय छोटी-छोटी चीजों पर बड़ी बात कह जाते हैं जैसे पोदीना, नीबूं, खपरैल आदि। हाशिमपुरा, मेरठ, मुजफ्फरनगर, दादरी जैसी सांप्रदायिक घटनाओं पर भी लिखते रहे हैं।

इसी खंड में लेखक ने भीष्म साहनी को भी शामिल किया है। भीष्म साहनी के उपन्यास और कविताओं पर बात की है।  भारत विभाजन दुनिया की सबसे बड़ी मानव त्रासदियों में से एक रही है। ऐसे में अनहद भीष्म साहनी को याद करते हैं। इनका अधिकांश लेखन भारत विभाजन की त्रासदियों पर रहा है।

सरहद के पार रचना संसार में अनहद ने पाब्लो नेरूदा, गाब्रिएल  गार्सिया मार्केज, विस्वावा शिंबोर्स्का, गुंटर ग्रास, लैजना क्रैसना होर्केई, खालिद हुसैनी, अहमद, फराज और परवीन शाकिर को लिया है।

पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से लेखक ने दो खास शायर परवीन शाकिर और अहमद फराज को लिया है। फराज एकनिष्ठ प्रेम की बात करते हैं। इनके लेखन में प्रेम का विछोह और दर्द भी शामिल है। इन्होंने फौजी शासन के खिलाफ लिखा तो इन्हें निर्वासन भी भोगना पड़ा। लेखक कहते हैं कि फराज रूमानियत के कवि से धीरे-धीरे प्रतिरोध के कवि के रूप में तब्दील हो जाते हैं।
 
वहीं परवीन शाकिर को भी प्रेम में विछोह की कवयित्री के तौर पर जानी जाती हैं। लेखक ने इनके लेखन को प्रेम में डूबी सत्री का रोजनामचना माना है। पड़ोसी मुल्क के इन शायरों को लेना काफी अहम माना जा सकता है ऐसे समय में जब पाकिस्तान का लगातार विरोध किया जा रहा है और उनके कलाकारों का भी। और ये कलाकार तो अक्सर अपने मुल्क में भी विरोध का शिकार होते रहे हैं।

पाब्लो नेरुदा दुनिया में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले कवियों में से हैं। वे एक साथ प्रेम के कवि और एक क्रांतिकारी के तौर पर जाने जाते हैं। बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत कविता संग्रह काफी प्रसिद्ध है। नेरूदा चिली में जनता के कवि के रूप में जाने जात रहे हैं। पुस्तक में लेखक ने ना सिर्फ नेरुदा की कविताओं पर बात की है बल्कि उनके क्रांतिकारी जीवन संघर्षों का भी जिक्र किया है। नेरुदा की मौत पर भी लोगों द्वारा सवाल उठाए जाते रहे और उनकी मौत को लेकर सरकार शक के घेरे में बनी रही।

ग्राबिएल गार्सिया मार्केज ने एकांत के सौ वर्ष जैसी वैश्विक स्तरीय कृति लिखी।  लेखक को जादुई यथार्थवादी लेखक कहा जाता है। जो लैटिन अमेरिकी जीवन मान्यताओं और हकीकतों को उसी रूप में देखते हैं जैसा कि वे हैं या वहाँ के लोग मानते हैं। मार्केज़ के रचना संसार पर उनकी दादी के किस्से कहानियों का असर है। लेखक मार्केज की तुलना मुक्तिबोध कबीर और विजयदान देथा से करते हैं।
 
नोबल विजेता विस्सावा शिंबोर्स्का को लेखक प्रेम और प्रतिरोध की कवयित्री के रूप में देखते हैं। लेखक के मुताबिक विस्सावा राजनैतिक लेखन तो करती हैं लेकिन थोड़ा नर्म रुख लिए हुए। जैसा कि उन पर आरोप लगाया जाता है वे गैर-राजनैतिक लेखन करती हैं यह गलत है। लेखक उनके स्वभाव के बारे में कहते हैं कि वो एकांतप्रिय भले ही हैं लेकिन लेखन में बहुत मुखर हैं।

लेख कहतै हैं कि गुंटर ग्रास एक प्रतिरोधी लेखक हैं समझौतावादी वे  कभी नहीं रहे। उन्होंने नाजीवाद–फासीवाद जैसा प्रवतियों का हमेशा विरोध किया। द टिन ड्रम गुंटर ग्रास की नाजीवाद के खिलाफ किताब है। उन्हें ब्लैक कॉमेडी का रचनाकार माना जाता है। अनहद गुंटर ग्रास की रचनाओं के साथ-साथ उनके जीवन अनुभवों को भी बताते हैं।

हंगरी के लैजलो क्रैसना होर्केई 2015 के  मैन बुकर पुरस्कार विजेता लेखक हैं। यह पुरस्कार उन्हें सेटेटैंगो (1985) उपन्यास के लिए मिला। उनका लेखक बनने का कोई शौक या सपना नहीं था। एक अनजान व्यक्ति से हुई मुलाकात उन्हें लिखने के लिए विवश कर देती है। इस घटना से लेखक बनने की प्रक्रिया को भी समझा जा सकता है।

दुनिया के अलग-अलग हिस्सों बर्लिन, न्यूयॉर्क जापान, चीन में रहने के बाद भी लेखक अपने देश के दुख, तकलीफों से जुड़े नजर आते हैं। हंगरी ने दोनों विश्व युद्धों में बहुत नुकसान झेला है। लगातार गरीबी झेलता रहा और सपने देखता रहा। अनहद कहते हैं कि लैजलो को हंगरी की परिस्थितियों ने लेखक बनाया।

अफगानिस्तान से लेखक ने खालिद हुसैनी के उपन्यास काइट नगर को लिया है जो अफगानिस्तान के बद्तर होते हालातों की दास्तान है। काबुल शहर  में जन्मे खालिद हुसैनी 1980 में अमेरिका चले गए थे। तालिबानी कब्जे से पहले और बाद वाले अफगानिस्तान की जिंदगी इसमें कैद है। अनहद इस पुस्तक को आमिर और हसन की दोस्ती को देखते हैं जो उनके अब्बुओं के माध्यम से होती है। हसन आखिर में लेखक बन जाता है। पश्तून का हजारा लोगों पर अत्याचार, रूसी सेनाओं के कब्जे के बाद भी बुरी स्थिति, स्त्री को टारगेट करने की मानसिकता। आसिफ उपन्यास के अंत में  तालिबानी बन जाता है जो बचपन में हसन और आमिर को परेशान करता था। आगा साहब और आमिर इलीट जीवन को छोड़कर अमेरिका में मामूली जीवन जीना। आमिर का अफगानिस्तान वापस आना हसन के बेट सोहराब को लेने के लिए, और बद्तर हालातों से सामना जो कि एक बड़ा परिवर्तन था अफगानिस्तान के जीवन में। अनहद लेखक की  की तारीफ करते हैं इस उपन्यास के लिए लेकिन हुसैनी के अमेरिका के प्रति नर्म रुख पर भी सवाल उठाते हैं जबकि दुनिया में आतंकवाद को कायम करने में अमेरिका अपना खेल जारी रखता है। वे अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकवाद को पाकिस्तान और अमेरिका द्वारा प्रयोजित बताते हैं और तालिबानी आतंकवाद को इंसानियत पर संकट।

समावेश खंड में इजाडोरा डंकन, अमृता शेरगिल औऱ क्या दिल्ली क्या लाहौर पर नजर लिखा गया है।एक संघर्षशील, अद्भुत नृत्यांगना और उन्मुक्त प्रेम करने वाली स्त्री इजाडोरा की जिंदगी का जिक्र अगर इस पुस्तक में ना होता तो कला की दुनिया पर चर्चा कुछ अधूरी रह जाती। इजाडोरा ने अपने जीवन अनुभवों को अपनी आत्मकथा माई लाइफ में लिखा है। इजाडोरा ने समाज के बने बनाए रास्तों को नहीं चुना। उसने अपनी अलग नृत्य शैली विकसित की। बैले नृत्य के दौर में उसने अपना एक नया अंदाज गढ़ा। प्रेम के मामले में भी इजाडोरा परंपरागत प्रेम को नकारकर अलग रास्ता बनाया। 

पुरुष कलाकारों का संघर्ष तो बहुत दिखता है साहित्य में लेकिन एक महिला कलाकार के अपने अलग संगर्ष होते हैं अनहद इस लेख में इसको बेहद डूबकर लिखते हैं।
महिला कलाकार में दूसरा नाम अमृता शेरगिल का है जिसे लेखक ने अपनी पुस्तक में लिया है। भारतीय चित्रकला में अमृता शेरगिल एक ऐसा नाम है जिसके अपने अलग ही मायने हैं, खासकर महिला चित्रकार के तौर पर। शेरगिल के पिता एक सिक्ख थे जबकि माँ हंगरी की थी। अमृता ने हंगरी के साथ-साथ भारत में जीवन का कुछ समय बिताया। कुछ समय पेरिस में भी रही जहां  चित्रकला का प्रशिक्षण लिया। अमृता की चित्रकला की ताकत भारतीय चित्रकला है। अमृता ने पहाड़ी और ग्रामीण स्त्रियों के जीवन के जीवन को प्रमुखता से अपनी कूचियों से रंगा है। अमृता की बेहद कम उम्र में मौत हो गई।

विभाजन का असर अभी भी भारत-पाकिस्तान दोनों मुल्कों के रिश्तों पर देखा जा सकता है। दोनों देश स्थायी तौर पर एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। क्या दिल्ली क्या लाहौर फिल्म इसी को बेहद संजीदा तरीके से पर्दे पर दिखाती है। अनहद इस फिल्म को गर्म हवा और तमस जैसी संजीदा फिल्मों की कड़ी के तौर पर देखते हैं और इसे राजनैतिक संदेश वाली फिल्म के तौर पर देखते हैं। फिल्म का अधिकाश हिस्सा दो फौजियों के संवाद पर टिका हुआ है। राजनैतिक संदेश के मायने में लेखक इस फिल्म को भारत विभाजन पर बनी अन्य फिल्मों से अलग मानते हैं। फिल्म में जिन्ना, गांधी का जिक्र का भी जिक्र है और विभाजन का लोगों के जीवन पर पड़ने वाला स्थाई असर। भारत से पाकिस्तान गए लोगों को मुजाहिर कहा जाता है। लेखक दोनों चरित्रों में नॉस्टेलेजिया का भाव पाते हैं। रहमत अली दिल्ली को और समर्थ शास्त्री लाहौर को याद करते हैं बातचीत में। इस फिल्म की तुलना विश्व प्रसिद्ध फिल्म शिंडलर्स लिस्ट और मैन्स लैंड से करते हैं लेखक। साथ ही पिंजर, ट्रेन टू पाकिस्तान, खामोश पानी जैसी फिल्मों से भी इसकी तुलना करते हैं।


यह आकाशपाणी है

अंकिता रासुरी

पिताजी गांव के जूनियर हाईस्कूल में शिक्षक थे। मैंने दो या ढाई साल की उम्र से उनके साथ स्कूल जाना शुरू कर दिया था। तब गावों में 5 साल की उम्र में बच्चे स्कूल जाना शुरू करते थे। हालाँकि मैं स्कूल खुशी-खुशी जाया करती। स्कूल जाने का एक लोभ यह भी था कि पिता के सहकर्मी शिक्षक मेरे लिए टॉफियाँ या बिस्किट लाया करते। मैं स्कूल में सब बच्चों की चहेती थी। हालाँकि ये भी होता कि पिताजी जिन बच्चों को डांटते-मारते वे बच्चे मुझे मार कर अपना बदला पूरा कर लेते थे।

पिताजी के सहकर्मी शिक्षक दूसरे गांव के रहने वाले थे। उनकी बेटी मेरी ही उम्र की थी। वो भी मेरी ही तरह अपने पिता के साथ स्कूल आती थी। अक्सर ये होता कि मेरे पिता मुझ से कहा करते कि  जगदम्बा पढ़ने में बहुत तेज है। वही बात उसके पिता मेरे बारे में कहा करते। मैंने जब उससे ये बात कही तो उसने कहा कि ठीक ठीक यही बात उसके पिता ने भी कही है। हम दोनों अपनी समझदारी पर कुछ देर खूब हंसते कि हमने बड़ों की पोल खोल दी।

उन्हीं दिनों गांव के ही बेसिक स्कूल के एक गुरूजी जी थे। वो मेरठ के रहने वाले थे। तब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था। उनके दो बेटे थे। वो मुझे साथ में खेलने के लिए बुलाती लेकिन बाहरी होने की वजह से मैं उनसे बहुत शर्माया करती थी। शर्म इतनी कि कभी उनके चेहरे भी ठीक से नहीं देखे। लेकिन मन ही मन बहुत आकर्षित थी उनसे। कई बार ये भी ख्याल आता कि क्या उनमें से कोई मेरा दूल्हा बनेगा। राज्य अलग हो गए इसके बाद भी परिवार का उन गुरूजी से संपर्क बना हुआ है। घर में जब-जब शादियाँ हुईं तो वो दोनों भाई घर आए। इस बार वो शरमा रहे थे और मैं उनके चेहरे गौर से देख रही थी कि कहीं कोई आकर्षण बचा हुआ है या नहीं।

फिर कुछेक साल बाद बेसिक स्कूल में नाम तो लिखवा लिया गया लेकिन तब भी कई बार पिताजी वाले स्कूल जाया करती। फिर पांचवीं पास करके कक्षा 6 में इसी स्कूल में आई पढ़ने आई। तब तक पिताजी दूसरे स्कूल जा चुके थे। स्कूल बिल्कुल जर्जर स्थिति में था। बारिश के दिनों में डर लगता था कहीं टूट ना जाए। स्कूल थोड़ा-थोड़ा टूटता रहा या दरार पड़ती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे दुर्घटना कहा जाए। हालाँकि दूब घास से भरा हुआ स्कूल का आंगन बहुत खूबसूरत लगता। पहाड़ के दूर के छोर पर स्कूल में बैठी एक लड़की को लगता था की देश-दुनिया तो हमारे बारे में कुछ जानती ही नहीं है। भंगैड़ी नाम था उसका।

16
या 17 साल की रही होगी, आठवीं कक्षा में थी। भंगैड़ी गढ़वाली में गौरेया को बोलते हैं। जिन बेटियों का नाम मां-बाप भंगैड़ी रख देते थे उनके स्कूल के नाम रखने की जिम्मेदारी अक्सर शिक्षकों पर आ पड़ती थी। भंगैड़ी नाम शिक्षकों को स्कूली दस्तावेज के लायक शायद कभी नहीं लगा। शिक्षक का रखा हुआ नाम या तो स्कूली दस्तावेज तक सीमित रहता अधिक से अधिक शादी के कार्ड के लिए। खैर, अचानक उसने कहा अगर बारिश में ये स्कूल टूट जाता और हम सब दब कर मर जाते कितना अच्छा होता कम से कम अखबार में हमारी फोटो तो छपती। उस वक्त उसको मरना बहुत छोटी बात लगी होगी अखबार में फोटो छपने के मुकाबले। उसे लगा होगा सामान्य जीवन की खबरें तो बड़े लोगों की छपती हैं हम जैसों को मरना खपना होगा इसकी खातिर। उसी साल या शायद एक साल बाद उसकी शादी हो गई।

कुछ समय बाद उसको फिर देखा एक नए स्वरूप में। शरीर पर अतिरिक्त कपड़े, सिर के चारों और टोपी और ऊपर से साफा बाँधे हुए, कमर में एक दरांती खोसे, सिर पर तसला रखे हुए गधेरे जा रही थी। इस वेशभूषा से समझ में आ जाता था कि अमुक स्त्री सिलि (प्रसूता) है। जिस समय में महिलाओं को सबसे अधिक जरूरत होती है साफ सफाई की, आराम की, उस समय उनको अस्पृश्य बना दिया जाता है। उसे ओबरे (घर के निचले तल्ले) में रखा जाता है। अगर किसी ने स्पर्श भी किया तो नहाना पड़ता। 21 दिन तक प्रसूता से इसी तरह का व्यवहार किया जाता है। इस जकड़न में अब भले ही थोड़ी-बहुत ढील हुई है लेकिन स्थितियाँ बहुत नहीं बदली हैं। इस बार गांव गई तो रिश्ते की एक भाभी सिलि थी। वो ओबरे में ही थी, जमीन पर बिस्तर बिछाए हुए। मैंने पूछा- कपड़े तो उसी गधेरे के पानी में धोने होते होगें अब भीउन्होंने कहा कि हाँ और कहाँ धोएं। जिस धारे में सारे लोग कपड़े धोते हैं सिलि वहाँ न धोकर गधेरे के बगल के खेत से आने वाले पानी में धोती हैं। पानी हालाँकि साफ ही होता है लेकिन गधेरे की गंदगी वाली जगह में साफ और गंदे पानी में धोने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है।

पीरियड पर इन दिनों खूब चर्चा हो रही है उसी तरह प्रसूति के दौरान होने वाली समस्याओं पर भी बातचीत होनी चाहिए। बच्चे पैदा करते हुए भी महिलाओं को बहुत सी दिक्कतों और रूढियों को सामना करना पड़ता है। बच्चे की पैदाइश के इक्कीस दिन तक तो एक तरह से बहिष्कृत होती हैं। ऐसा नहीं है कि गांवों में सब बुरा ही है। इन मेहनतकश स्त्रियों को बच्चे जन्मते वक्त उतनी दिक्कत नहीं होती है, जितनी शहरी स्त्रियों को होती है। काम की वजह शरीर सधा हुआ रहता है आपरेशन की नौबत बहुत ही कम आती है। गांव में एक दोस्त थी जो रिश्ते में बुआ लगती थी। सब उसको बणी कहते। बाद में पता चला कि जब उसकी माँ घास लाने गई थी बण (जंगल) में ही उसका जन्म हुआ। असल नाम उसका कमला था। हालाँकि वह बहुत तकलीफदेह रहा होगा उसके बावजूद सबको वह सामान्य ही लगता है।

देखने की जो शहरी दृष्टि है। वो कई बार सामान्य चीजों को भयावह तरीके से पेश करती है और भयावह चीजें उसके लिए बहुत सामान्य होती हैं। कई स्तर पर बंटा हुआ समाज जैसे जाति, धर्म, जेंडर, शहरी और गांव के स्तर पर भी उसी तरह से बंटा हुआ है। गांवों पर जीवित समाज में गांवों को ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। बेवकूफ के संदर्भ में प्रयोग होना वाला शब्द गंवार गांव विरोधी समाज की मानसिकता को ही दर्शाता है।

गांव के स्कूल में पढ़ाई का स्तर काफी बुरा था जैसा कि देश के अधिकांश सरकारी स्कूलों का है। एक-दो शिक्षकों से उम्मीद भी कैसे की जाए कि वो सारा आफिशियल और पढ़ाई वाला काम अच्छे संभाल लेंगे। एक दो शिक्षक ऐसे मिले मुझे बहुत कोशिश करते कि सब कुछ अच्छे से पढ़ा ही लें। बेसिक स्कूल में एक बहुत अच्छे शिक्षक आए उनका नाम सूर्यप्रकाश था। सूर्यप्रकाश गुरूजी बच्चों पर बहुत मेहनत करते। घर-घर जाकर लोगों से उनके बच्चों की पढ़ाई पर बात करते। जो बच्चा स्कूल नहीं जाता या कम जाता उसे व्यक्तिगत तौर पर समझाते स्कूल जाने के लिए। बहुत कोशिश करते लेकिन अपनी कोशिश में वो अकेले होते। एक मैडन भी थी लेकिन अक्सर छुट्टी पर रहतीं।

प्राइमरी पास करने के बाद भी कइयों को गिनती नहीं आती थी किसी को पहाड़ा नहीं। वर्णमाला, जोड़-घटाव, गुणा-भाग नहीं आता था। अगर किसी को इतना आ जाता तो वो होशियार समझा जाता है। इन सब के बावजूद स्कूल जाना बहुत खुशी भरा होता था। हमारे स्कूल के बगल में कोई बड़ा प्राईवेट स्कूल नहीं था जिससे हम हीन भावना महसूस करते। जैसा कि मैंने अक्सर शहरों में देखा है। हमारे लिए जो भी था वही स्कूल था। बच्चे भी शहरी बच्चों की तरह सिर्फ झोला उठाकर स्कूल नहीं जाते थे। स्कूल जाने से पहले सुबह-सुबह हमें कुछ काम निबटाने होते थे। जैसे गायों या बैलो को चरने के लिए जंगल भेजना, पानी लाना, आस-पास के खेतों से ही थोड़ा बहुत घास लाना। फसलों के समय में खासकर असूज के महीने धान कटाई के वक्त, और बरसात में धान रोपाई के वक्त कई-कई दिन स्कूल नहीं जाना हो पाता, देर हो जाती या कई बार जल्दी छुट्टी लेनी पड़ती। छोटे भाई बहन की देखभाल के घर पर रहना। गुरुजी सब कुछ समझते कई बार कुछ खास नहीं कहते लेकिन कई बार डांटते या मारते भी पढ़ना नहीं है तो घर बैठो।

खैर मुझे कहानियाँ बहुत पसंद थी बहुत जल्द ही हिंदी पढ़नी सीख ली थी पिताजी के साथ स्कूल जाते हुए ही। माँ भी कुछ-कुछ कहानियाँ सुनाया करतीं। अन्य लोगों के मुकाबले माँ अपवाद स्वरूप कुछ पढ़ी लिखी थीं और कुछ अपने बचपन में बढ़ी हुई और कुछ खुद से गढ़ी हुई कहानियां-कविताएं भी सुनाती। सुबह जगाने के लिए उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लाई हूँ मुँह धोलो सुनाती। दूध पिलाने के लिए अक्सर सुनातीं घिंडुड़ी की माँ और घिंडुड़ी न चा दूध पे। घिंडुड़ी भी गौरैया को ही बोलते हैं। माँ पौड़ी क्षेत्र से आती हैं तो वहाँ घिंडुड़ी कहा जाता है। गढ़वाली भी क्षेत्रवार बहुत कुछ बदल जाती है शब्दों और उच्चारण समेत।

कुछ दिनों पहले ही जापानी शिक्षाविद तेत्सुको कुरोयानागी की किताब तोत्तो चान पढ़ रही थी। हालाँकि इस किताब के एक हिस्से को मैं बचपन में पाठ्यक्रम में पढ़ चुकी थी। लेकिन रेल के डिब्बे वाले स्कूल के अलावा कुछ याद नहीं था। तोत्तो का स्कूली जीवन और उसकी शरारतें पढ़ते हुए अपने गांव के स्कूली दिन याद आ गए। अक्सर यह होता था कि जिन महीनों में हिसर किनगोड़, घिंघ्यारा, पंय्या (पहाड़ी फलों के नाम) होता किसी न किसी बहाने स्कूल से निकल जाते। उन दिनों स्कूल में ना शौचालय था ना पानी की व्यवस्था तो बच्चों के लिए यह सकारात्मक पक्ष होता। पानी के लिए बाल्टी रखी तो होती लेकिन उसे भी बच्चे ही भर कर लाते। इतने बच्चों में आखिर वो पानी कितना चल पाता। कभी पानी के बहाने तो कभी पेशाब के बहाने जाते और जल्दी सड़क के मोड़ के पार होते ही सुकून की सांस लेते अब गुरूजी नहीं देखने वाले। लेकिन बरसात के दिनों में काफी दिक्कत होती, स्कूल जाने में भी रास्ते गंदे हो जाते, स्कूल पहुंच भी जाओ तो पेशाब स्कूल के पीछे की बची गली में जाना पड़ता। जो अक्सर गंदी भी रहती थी। खैर सामान्य ही लगता था सब कुछ तब भी।

शिक्षक इस बात को जानते थे और ख्याल रखते कि एक साथ ज्यादा बच्चे न जा पाएं। हम लोग कैसी-कैसी तो मिन्नतें करते कि, शिक्षकों को कहना ही पड़ता जाओ तुम लेकिन जल्दी आना। लेकिन जहाँ दो तीन बच्चे भी एक साथ चले गए सारी नसीहतें हिदायतें भूलकर झाड़ियों में घुस जाते, पेड़ों पर चढ जाते, फल खाने के लिए या फिर कबड्डी, खो-खो, सतखान, जैसे कोई न कोई खेल खेलना शुरू कर देते।

इंटरवल के समय तो अक्सर यही होता कि बच्चे जाते तो वापस स्कूल आना ही नहीं चाहते। फिर सड़क के उसी मोड़ के दूसरी ओर ओझल हो जाते जैसे कि वो कोई जादुई दुनिया हो वहाँ शिक्षक प्रवेश ही ना कर सकता हो। हम सभी आपस में एक दूसरे को हिदायतें देते कि कोई मोड़ के उस पर नहीं जाएगा नहीं तो गुरूजी इंटरवल खत्म होने की घंटी बजवाएंगे। हमें ऐसा लगता कि हम जाएंगे तभी घंटी बजेगी। लेकिन गुरूजी किसी न किसी बच्चे को पकड़ ही लेते या खुद ही घंटी बजा लेते। हालाँकि कुछ बच्चे घंटी सुनते ही चले जाते लेकिन कुछ तब भी कोई न कोई बहाना बना लेते जाने का। कई बार गुरुजी उस मोड़ को पार करके खुद ही बच्चों को खदेड़ कर ले जाते। और तो और सबसे मजेदार ये होता कि इसी दौरान अगर किसी खेल में कोई टीम हार रही होती तो ये बदला लेने का अच्छा मौका होता और वापस स्कूल की ओर बढ़ जाते।

इंटरवल का मतलब हमारे लिए कभी भी लंच ब्रेक नहीं होता था बल्कि खेलने के लिए होता था। चूंकि स्कूल अपने गांव में ना होकर बगल के गांव में था तो ये भी संभव नहीं होता कि घर जाकर ही कुछ खा लिया जाए, क्योंकि दूर पड़ता। बगल की दुकान से कभी-कभार बिस्किट या पकोड़ियाँ खा लेते बस। लेकिन कभी टिफिन नहीं ले जाते थे जरूरत ही महसूस नहीं होती। सुबह घर से निकलते हुए खाते और फिर स्कूल से लौटकर।
ऐसा नहीं कि बचपन इतना सुकून भरा रहा हो। बस तब हर हाल में खेलने की जिद होती। स्कूल में शिक्षक को गिनती, पहाड़े सुनाने, पाठ, कविता सुनाना, की मार का डर भी होता, तो घर में छोटे भाई बहनों को संभालना, घर और खेती के कामों जैसे घास लाना, पानी लाना, गोरुओं को चराना आदि। घर की और भी बहुत सारी समस्याएं होतीं। लेकिन बच्चे थे कि इन सबके बाद भी समय चुरा चुरा कर खेलने बैठ जाते।

गांव में एक दो बड़े खेत थे जिसे हम लोग अक्सर खेल का मैदान बनाए रखते। इसके लिए हमें गालियों भी खानी पड़ती। लेकिन इसका हम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ता। हमें खेत से भगाया जाता और कुछ देर बाद फिर लौटकर आ जाते बल्कि कई बार खेत वालों को उल्टा चिढ़ाते भी या गाली भी देते। जिनका खेत था उनकी भी अपनी दिक्कतें थीं। हम लोग खेल-खेल कर खेत की ऐसी हालत कर देते कि उसमें हल चलाने फसल उगाने में ज्यादा मेहनत लगती।

पहाड़ों में आर्थिक असमानता बहुत नहीं देखने को मिलती। सबकी स्थिति बुरी ही कही जाएगी लेकिन फिर भी एक दो परिवार ऐसे थे जिनकी हालत बहुत खराब थी। उनकी अपनी दिक्कतें थीं किसी की दादी झगड़ा करती किसी के पिता जी दारू पीकर मारपीट करते। एक कहावत भी है सूर्य अस्त गढ़वाली मस्त”- ये कहावत शराब पीने के संदर्भ में प्रयोग की जाती है। जब छोटी थी मैंने शराब का असर देखा भी है अपने गांव में। हर रोज गाँव में दो-चार लोग कम से कम ऐसे होते ही थे जो शराब पीकर गाली देते। कभी किसी को व्यक्तिगत तौर पर किसी एक को, तो कभी पूरे गांव वालों को संबोधित करते हुए। दूसरे लोग उसे एक तरह से मनोरंजन के रूप में लेते थे। लेकिन दिक्कत और शर्मिंदगी उसके घर के सदस्यों खासकर पत्नी और बच्चों को उठानी पड़ती। पिताजी गांव ही नहीं पूरे इलाके में वे एक बेहतर और जुझारू शिक्षक व इंसान के तौर पर जाने जाते थे और थे भी। लेकिन वे भी खूब शराब पीते थे। घर में माँ को पिताजी की शराब की आदत कारण मैंने डर के साए में जीते हुए देखा। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उन्होंने शराब पीकर किसी बाहरी व्यक्ति को कुछ कहा हो। लेकिन हर बार पीकर घर में झगड़ा और मार-पीट होना तय होता था। माँ के साथ-साथ वो डर मेरे भीतर भी कहीं बैठ गया। पहाड़ों में शराब के खिलाफ महिलाओं ने बहुत आंदोलन किए हैं। हालाँकि लड़ाई-झगड़े का कारण सिर्फ शराब नहीं होती है बल्कि पुरुष प्रधान मानसिकता भी है।

एक बार रसूल हमजातोव की किताब मेरा दागिस्तान पढ़ रही थी उसमें उन्होंने लिखा था कि उनके यहाँ फसलों के बर्बाद होने संबंधी गालियाँ दी जाती हैं। मुझे बहुत अचरज हुआ ऐसी समानता देखकर हमारे यहाँ पर भी तो फसलों, खेतों, गोरुओं (पालतू पशुओं) संबंधी गालियाँ दी जाती हैं। फिर सोचा एक जैसी जीवन परिस्थितियों के कारण बोल-चाल में समानता आनी लाज़िमी है। हम भी जब आपस में गाली देते सबसे प्रिय गाली यही होती कि तुम्हारे घर में भांग जम जाए या तुम्हारी भैंस ढंगार में गिर जाए।

शहरों के बच्चों को देखती हूँ तो लगता है इस तरह का बचपन सुविधामय भले ही है लेकिन बंधन इतने हैं। घर से दो कदम बिना बड़ों की निगरानी के घर से बाहर निकाल ही नहीं पाते। इस तरह के माहौल में जीवन अनुभव बहुत सिमटे हुए होते होंगे। हम लोग थे तो माँ-बाप को खेत-जंगल से फुर्सत की कहाँ होती थी बच्चों को देखते। हम चाहे जो भी करते लेकिन अपने स्तर पर काफी समझदार और आत्मनिर्भर थे ही। दादा-दादी को जो थोड़ी-बहुत फुर्सत होती भी तो वो दौड़ते-भागते बच्चों कम ही नियंत्रित कर पाते।

कुछ दिनों पहले फरहान अख्तर की एक शार्ट फिल्म पॉजिटिवदेखी जिसमें एक व्यक्ति बताता है कि उसे बचपन में कुछ बातों का पूरा यकीन था जैसा वो सोचता है चीजें वैसी ही होंगी। अपने बचपन को याद करती हूँ मेरी भी कुछ कल्पनाएं थीं जो मेरे लिए बेहद वास्तविक थीं। मैं पहाड़ों की चोटियों पर टिके आसमान को ललचाई हुई नजर से देखा करती। अक्सर सोचती जब कभी बड़ी हो जाऊँगी तो वहाँ चोटी पर जाकर आसमान को छूकर देखूंगी कैसा लगता है।

ऐसा ही जुगनुओं के मामले में हुआ करता। बरसात में जब चारों ओर जुगनू चमकते तो मैं बहुत खुश हो जाया करती थी कि तारे घरों और खेतों में उतर आए हैं। हम लोग जुगनुओं को अपने हाथों में पकड़ते। कई बार पकड़ में आते कई बार छूट भी जाते लेकिन एक दिन देखा कि जुगनू कोई तारा नहीं बल्कि पंख वाला कीड़ा है तो बहुत दुख हुआ था।

मेरे बचपन की सबसे शानदार कल्पना आकाशवाणी को लेकर थी। समाचारों या कार्यक्रम के पहले वाला उसका संगीत मुझे बहुत प्रिय था। यह आकाशवाणी हैशब्द को मैं सुनती कि यह यह आकाश पाणी है। इस तरह से मुझे लगता कि आसमान कोई ऐसी जगह है जहाँ पानी ही पानी होता है। ये जो आवाज है उसी दुनिया से आ रही है, कुछ लोग वहाँ बैठकर कुछ न कुछ सुनाते रहते हैं। आसमान की ओर भी देखती लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखता। जब रेडियो ऑन होता तो रेडियो के छेदों से भी अंदर झांकती शायद इसके भीतर वो दुनिया हो जहाँ से लोग बोलते हैं। सिवाय अंधेरे के कुछ नहीं दिखता था। सही शब्द आकाशवाणी पता चलने पर मैं बहुत दुखी हुई थी। आज भी यह शब्द मुझे पसंद नहीं है। मुझे वो बचपन वाला आकाशपाणी शब्द ही पसंद है।

हालाँकि बचपन की ऐसी बहुत सारी कल्पनाएं थीं जिनके टूटने पर दुख हुआ था। ये ये घटनाएं ऐसी हैं जिनसे बहुत टूटने जैसा लगा आज भी लगता है कि काश ये चीजें मेरी कल्पना के मुताबिक होतीं। आकाशपाणी कोई पानी वाली खूबसूरत दुनिया होती, जुगनू सच में तारे ही होते और किसी दिन आसमान को छूकर-कुरेद कर देख पाती कि नीली पट्टी आखिर कैसी है जहाँ धूप बारिश बर्फ समाई है और वक्त वक्त पर काली, स्लेटी या रंगबिरंगी भी हो जाती है।

अब घर जाने पर जीवन का पिछला प्रेम जैसे फिर तीव्रता से याद आता है। मैं छत पर जाती हूँ। छह-सात साल ही तो बीते हैं जब मैं छत पर जाकर बात किया करती। प्रेमी को बताया करती ऐसे खेतों में फसल उगी है, ये जो आवाज आ रही है पानी की, ये खेतों में फसलों के लगाया गया है। उसने शायद उस पर एक अच्छी कविता भी लिखी। फिर उन्हीं दिनों मैंने उसके यहाँ के फूलों-पेड़ों के बारे में पूछकर बुरांश और पलाश को लेकर कुछ लिखा था। लेकिन दुनियाएं, कल्पनाएं टूटती हैं फिर नई बनती हैं, फिर टटूती हैं। गांव जाकर मुझे वो खेतों का पानी उस पर हमारी लंबी बातचीत याद आती है। मुझे लगता है गांव और जंगल हमें अधिक कल्पनाशील बनाने के साथ संघर्षशील भी बनाते हैं। तब मैंने पलाश नहीं देखे थे लेकिन पलाश के फूलों से जोड़ता हुआ प्रेमी साथ था। आज मैं जहाँ हूं, यहाँ खूब पलाश के फूल खिले हैं। मैं बस इन फूलों का ही पीछा कर पाती हूँ अब। कभी लगता है कि प्रेम इस तरह से भी जिंदा रह सकता है। तो कभी लगता है जैसे एक बार फिर मैं इस लाल आग में झुलस जाऊंगी।

कुछ ही सालों में गांव भी खूब बदले हैं। टीवी, फोन बच्चों तक पहुंच गए हैं। लेकिन बच्चों को जहाँ एक खुला आसमान मिलेगा एक समय बाद सब चीजों से ऊबकर खुले आसमान के नीचे ही खेलना पसंद करेगें। तमाम संघर्षों के साथ गाँवों में जीवन और हवा अभी भी बाकी है ही, मैं पहाड़ों के संदर्भ में यह बात ज्यादा यकीन से कह सकती हूँ।