अंकिता रासुरी
पिताजी गांव के जूनियर हाईस्कूल में शिक्षक थे। मैंने दो या ढाई साल की उम्र से उनके साथ स्कूल जाना शुरू कर दिया था। तब गावों में 5 साल की उम्र में बच्चे स्कूल जाना शुरू करते थे। हालाँकि मैं स्कूल खुशी-खुशी जाया करती। स्कूल जाने का एक लोभ यह भी था कि पिता के सहकर्मी शिक्षक मेरे लिए टॉफियाँ या बिस्किट लाया करते। मैं स्कूल में सब बच्चों की चहेती थी। हालाँकि ये भी होता कि पिताजी जिन बच्चों को डांटते-मारते वे बच्चे मुझे मार कर अपना बदला पूरा कर लेते थे।
पिताजी के सहकर्मी शिक्षक दूसरे गांव के रहने वाले थे। उनकी बेटी मेरी ही उम्र की थी। वो भी मेरी ही तरह अपने पिता के साथ स्कूल आती थी। अक्सर ये होता कि मेरे पिता मुझ से कहा करते कि जगदम्बा पढ़ने में बहुत तेज है। वही बात उसके पिता मेरे बारे में कहा करते। मैंने जब उससे ये बात कही तो उसने कहा कि ठीक ठीक यही बात उसके पिता ने भी कही है। हम दोनों अपनी समझदारी पर कुछ देर खूब हंसते कि हमने बड़ों की पोल खोल दी।
उन्हीं दिनों गांव के ही बेसिक स्कूल के एक गुरूजी जी थे। वो मेरठ के रहने वाले थे। तब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था। उनके दो बेटे थे। वो मुझे साथ में खेलने के लिए बुलाती लेकिन बाहरी होने की वजह से मैं उनसे बहुत शर्माया करती थी। शर्म इतनी कि कभी उनके चेहरे भी ठीक से नहीं देखे। लेकिन मन ही मन बहुत आकर्षित थी उनसे। कई बार ये भी ख्याल आता कि क्या उनमें से कोई मेरा दूल्हा बनेगा। राज्य अलग हो गए इसके बाद भी परिवार का उन गुरूजी से संपर्क बना हुआ है। घर में जब-जब शादियाँ हुईं तो वो दोनों भाई घर आए। इस बार वो शरमा रहे थे और मैं उनके चेहरे गौर से देख रही थी कि कहीं कोई आकर्षण बचा हुआ है या नहीं।
फिर कुछेक साल बाद बेसिक स्कूल में नाम तो लिखवा लिया गया लेकिन तब भी कई बार पिताजी वाले स्कूल जाया करती। फिर पांचवीं पास करके कक्षा 6 में इसी स्कूल में आई पढ़ने आई। तब तक पिताजी दूसरे स्कूल जा चुके थे। स्कूल बिल्कुल जर्जर स्थिति में था। बारिश के दिनों में डर लगता था कहीं टूट ना जाए। स्कूल थोड़ा-थोड़ा टूटता रहा या दरार पड़ती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे दुर्घटना कहा जाए। हालाँकि दूब घास से भरा हुआ स्कूल का आंगन बहुत खूबसूरत लगता। पहाड़ के दूर के छोर पर स्कूल में बैठी एक लड़की को लगता था की देश-दुनिया तो हमारे बारे में कुछ जानती ही नहीं है। भंगैड़ी नाम था उसका।
16 या 17 साल की रही होगी, आठवीं कक्षा में थी। भंगैड़ी गढ़वाली में गौरेया को बोलते हैं। जिन बेटियों का नाम मां-बाप भंगैड़ी रख देते थे उनके स्कूल के नाम रखने की जिम्मेदारी अक्सर शिक्षकों पर आ पड़ती थी। भंगैड़ी नाम शिक्षकों को स्कूली दस्तावेज के लायक शायद कभी नहीं लगा। शिक्षक का रखा हुआ नाम या तो स्कूली दस्तावेज तक सीमित रहता अधिक से अधिक शादी के कार्ड के लिए। खैर, अचानक उसने कहा अगर बारिश में ये स्कूल टूट जाता और हम सब दब कर मर जाते कितना अच्छा होता कम से कम अखबार में हमारी फोटो तो छपती। उस वक्त उसको मरना बहुत छोटी बात लगी होगी अखबार में फोटो छपने के मुकाबले। उसे लगा होगा सामान्य जीवन की खबरें तो बड़े लोगों की छपती हैं हम जैसों को मरना खपना होगा इसकी खातिर। उसी साल या शायद एक साल बाद उसकी शादी हो गई।
कुछ समय बाद उसको फिर देखा एक नए स्वरूप में। शरीर पर अतिरिक्त कपड़े, सिर के चारों और टोपी और ऊपर से साफा बाँधे हुए, कमर में एक दरांती खोसे, सिर पर तसला रखे हुए गधेरे जा रही थी। इस वेशभूषा से समझ में आ जाता था कि अमुक स्त्री सिलि (प्रसूता) है। जिस समय में महिलाओं को सबसे अधिक जरूरत होती है साफ सफाई की, आराम की, उस समय उनको अस्पृश्य बना दिया जाता है। उसे ओबरे (घर के निचले तल्ले) में रखा जाता है। अगर किसी ने स्पर्श भी किया तो नहाना पड़ता। 21 दिन तक प्रसूता से इसी तरह का व्यवहार किया जाता है। इस जकड़न में अब भले ही थोड़ी-बहुत ढील हुई है लेकिन स्थितियाँ बहुत नहीं बदली हैं। इस बार गांव गई तो रिश्ते की एक भाभी सिलि थी। वो ओबरे में ही थी, जमीन पर बिस्तर बिछाए हुए। मैंने पूछा- “कपड़े तो उसी गधेरे के पानी में धोने होते होगें अब भी” उन्होंने कहा कि हाँ और कहाँ धोएं। जिस धारे में सारे लोग कपड़े धोते हैं सिलि वहाँ न धोकर गधेरे के बगल के खेत से आने वाले पानी में धोती हैं। पानी हालाँकि साफ ही होता है लेकिन गधेरे की गंदगी वाली जगह में साफ और गंदे पानी में धोने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है।
पीरियड पर इन दिनों खूब चर्चा हो रही है उसी तरह प्रसूति के दौरान होने वाली समस्याओं पर भी बातचीत होनी चाहिए। बच्चे पैदा करते हुए भी महिलाओं को बहुत सी दिक्कतों और रूढियों को सामना करना पड़ता है। बच्चे की पैदाइश के इक्कीस दिन तक तो एक तरह से बहिष्कृत होती हैं। ऐसा नहीं है कि गांवों में सब बुरा ही है। इन मेहनतकश स्त्रियों को बच्चे जन्मते वक्त उतनी दिक्कत नहीं होती है, जितनी शहरी स्त्रियों को होती है। काम की वजह शरीर सधा हुआ रहता है आपरेशन की नौबत बहुत ही कम आती है। गांव में एक दोस्त थी जो रिश्ते में बुआ लगती थी। सब उसको बणी कहते। बाद में पता चला कि जब उसकी माँ घास लाने गई थी बण (जंगल) में ही उसका जन्म हुआ। असल नाम उसका कमला था। हालाँकि वह बहुत तकलीफदेह रहा होगा उसके बावजूद सबको वह सामान्य ही लगता है।
देखने की जो शहरी दृष्टि है। वो कई बार सामान्य चीजों को भयावह तरीके से पेश करती है और भयावह चीजें उसके लिए बहुत सामान्य होती हैं। कई स्तर पर बंटा हुआ समाज जैसे जाति, धर्म, जेंडर, शहरी और गांव के स्तर पर भी उसी तरह से बंटा हुआ है। गांवों पर जीवित समाज में गांवों को ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। बेवकूफ के संदर्भ में प्रयोग होना वाला शब्द गंवार गांव विरोधी समाज की मानसिकता को ही दर्शाता है।
गांव के स्कूल में पढ़ाई का स्तर काफी बुरा था जैसा कि देश के अधिकांश सरकारी स्कूलों का है। एक-दो शिक्षकों से उम्मीद भी कैसे की जाए कि वो सारा आफिशियल और पढ़ाई वाला काम अच्छे संभाल लेंगे। एक दो शिक्षक ऐसे मिले मुझे बहुत कोशिश करते कि सब कुछ अच्छे से पढ़ा ही लें। बेसिक स्कूल में एक बहुत अच्छे शिक्षक आए उनका नाम सूर्यप्रकाश था। सूर्यप्रकाश गुरूजी बच्चों पर बहुत मेहनत करते। घर-घर जाकर लोगों से उनके बच्चों की पढ़ाई पर बात करते। जो बच्चा स्कूल नहीं जाता या कम जाता उसे व्यक्तिगत तौर पर समझाते स्कूल जाने के लिए। बहुत कोशिश करते लेकिन अपनी कोशिश में वो अकेले होते। एक मैडन भी थी लेकिन अक्सर छुट्टी पर रहतीं।
प्राइमरी पास करने के बाद भी कइयों को गिनती नहीं आती थी किसी को पहाड़ा नहीं। वर्णमाला, जोड़-घटाव, गुणा-भाग नहीं आता था। अगर किसी को इतना आ जाता तो वो होशियार समझा जाता है। इन सब के बावजूद स्कूल जाना बहुत खुशी भरा होता था। हमारे स्कूल के बगल में कोई बड़ा प्राईवेट स्कूल नहीं था जिससे हम हीन भावना महसूस करते। जैसा कि मैंने अक्सर शहरों में देखा है। हमारे लिए जो भी था वही स्कूल था। बच्चे भी शहरी बच्चों की तरह सिर्फ झोला उठाकर स्कूल नहीं जाते थे। स्कूल जाने से पहले सुबह-सुबह हमें कुछ काम निबटाने होते थे। जैसे गायों या बैलो को चरने के लिए जंगल भेजना, पानी लाना, आस-पास के खेतों से ही थोड़ा बहुत घास लाना। फसलों के समय में खासकर असूज के महीने धान कटाई के वक्त, और बरसात में धान रोपाई के वक्त कई-कई दिन स्कूल नहीं जाना हो पाता, देर हो जाती या कई बार जल्दी छुट्टी लेनी पड़ती। छोटे भाई बहन की देखभाल के घर पर रहना। गुरुजी सब कुछ समझते कई बार कुछ खास नहीं कहते लेकिन कई बार डांटते या मारते भी पढ़ना नहीं है तो घर बैठो।
खैर मुझे कहानियाँ बहुत पसंद थी बहुत जल्द ही हिंदी पढ़नी सीख ली थी पिताजी के साथ स्कूल जाते हुए ही। माँ भी कुछ-कुछ कहानियाँ सुनाया करतीं। अन्य लोगों के मुकाबले माँ अपवाद स्वरूप कुछ पढ़ी लिखी थीं और कुछ अपने बचपन में बढ़ी हुई और कुछ खुद से गढ़ी हुई कहानियां-कविताएं भी सुनाती। सुबह जगाने के लिए उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लाई हूँ मुँह धोलो सुनाती। दूध पिलाने के लिए अक्सर सुनातीं घिंडुड़ी की माँ और घिंडुड़ी न चा दूध पे। घिंडुड़ी भी गौरैया को ही बोलते हैं। माँ पौड़ी क्षेत्र से आती हैं तो वहाँ घिंडुड़ी कहा जाता है। गढ़वाली भी क्षेत्रवार बहुत कुछ बदल जाती है शब्दों और उच्चारण समेत।
कुछ दिनों पहले ही जापानी शिक्षाविद तेत्सुको कुरोयानागी की किताब तोत्तो चान पढ़ रही थी। हालाँकि इस किताब के एक हिस्से को मैं बचपन में पाठ्यक्रम में पढ़ चुकी थी। लेकिन रेल के डिब्बे वाले स्कूल के अलावा कुछ याद नहीं था। तोत्तो का स्कूली जीवन और उसकी शरारतें पढ़ते हुए अपने गांव के स्कूली दिन याद आ गए। अक्सर यह होता था कि जिन महीनों में हिसर किनगोड़, घिंघ्यारा, पंय्या (पहाड़ी फलों के नाम) होता किसी न किसी बहाने स्कूल से निकल जाते। उन दिनों स्कूल में ना शौचालय था ना पानी की व्यवस्था तो बच्चों के लिए यह सकारात्मक पक्ष होता। पानी के लिए बाल्टी रखी तो होती लेकिन उसे भी बच्चे ही भर कर लाते। इतने बच्चों में आखिर वो पानी कितना चल पाता। कभी पानी के बहाने तो कभी पेशाब के बहाने जाते और जल्दी सड़क के मोड़ के पार होते ही सुकून की सांस लेते अब गुरूजी नहीं देखने वाले। लेकिन बरसात के दिनों में काफी दिक्कत होती, स्कूल जाने में भी रास्ते गंदे हो जाते, स्कूल पहुंच भी जाओ तो पेशाब स्कूल के पीछे की बची गली में जाना पड़ता। जो अक्सर गंदी भी रहती थी। खैर सामान्य ही लगता था सब कुछ तब भी।
शिक्षक इस बात को जानते थे और ख्याल रखते कि एक साथ ज्यादा बच्चे न जा पाएं। हम लोग कैसी-कैसी तो मिन्नतें करते कि, शिक्षकों को कहना ही पड़ता जाओ तुम लेकिन जल्दी आना। लेकिन जहाँ दो तीन बच्चे भी एक साथ चले गए सारी नसीहतें हिदायतें भूलकर झाड़ियों में घुस जाते, पेड़ों पर चढ जाते, फल खाने के लिए या फिर कबड्डी, खो-खो, सतखान, जैसे कोई न कोई खेल खेलना शुरू कर देते।
इंटरवल के समय तो अक्सर यही होता कि बच्चे जाते तो वापस स्कूल आना ही नहीं चाहते। फिर सड़क के उसी मोड़ के दूसरी ओर ओझल हो जाते जैसे कि वो कोई जादुई दुनिया हो वहाँ शिक्षक प्रवेश ही ना कर सकता हो। हम सभी आपस में एक दूसरे को हिदायतें देते कि कोई मोड़ के उस पर नहीं जाएगा नहीं तो गुरूजी इंटरवल खत्म होने की घंटी बजवाएंगे। हमें ऐसा लगता कि हम जाएंगे तभी घंटी बजेगी। लेकिन गुरूजी किसी न किसी बच्चे को पकड़ ही लेते या खुद ही घंटी बजा लेते। हालाँकि कुछ बच्चे घंटी सुनते ही चले जाते लेकिन कुछ तब भी कोई न कोई बहाना बना लेते जाने का। कई बार गुरुजी उस मोड़ को पार करके खुद ही बच्चों को खदेड़ कर ले जाते। और तो और सबसे मजेदार ये होता कि इसी दौरान अगर किसी खेल में कोई टीम हार रही होती तो ये बदला लेने का अच्छा मौका होता और वापस स्कूल की ओर बढ़ जाते।
इंटरवल का मतलब हमारे लिए कभी भी लंच ब्रेक नहीं होता था बल्कि खेलने के लिए होता था। चूंकि स्कूल अपने गांव में ना होकर बगल के गांव में था तो ये भी संभव नहीं होता कि घर जाकर ही कुछ खा लिया जाए, क्योंकि दूर पड़ता। बगल की दुकान से कभी-कभार बिस्किट या पकोड़ियाँ खा लेते बस। लेकिन कभी टिफिन नहीं ले जाते थे जरूरत ही महसूस नहीं होती। सुबह घर से निकलते हुए खाते और फिर स्कूल से लौटकर।
ऐसा नहीं कि बचपन इतना सुकून भरा रहा हो। बस तब
हर हाल में खेलने की जिद होती। स्कूल में शिक्षक को गिनती, पहाड़े सुनाने, पाठ, कविता सुनाना, की मार का डर भी होता, तो घर में छोटे भाई बहनों को संभालना, घर और खेती के कामों जैसे घास लाना, पानी लाना, गोरुओं को चराना आदि। घर की और भी बहुत सारी समस्याएं होतीं। लेकिन बच्चे
थे कि इन सबके बाद भी समय चुरा चुरा कर खेलने बैठ जाते।
गांव में एक दो बड़े खेत थे जिसे हम लोग अक्सर खेल का मैदान बनाए रखते। इसके लिए हमें गालियों भी खानी पड़ती। लेकिन इसका हम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ता। हमें खेत से भगाया जाता और कुछ देर बाद फिर लौटकर आ जाते बल्कि कई बार खेत वालों को उल्टा चिढ़ाते भी या गाली भी देते। जिनका खेत था उनकी भी अपनी दिक्कतें थीं। हम लोग खेल-खेल कर खेत की ऐसी हालत कर देते कि उसमें हल चलाने फसल उगाने में ज्यादा मेहनत लगती।
पहाड़ों में आर्थिक असमानता बहुत नहीं देखने को मिलती। सबकी स्थिति बुरी ही कही जाएगी लेकिन फिर भी एक दो परिवार ऐसे थे जिनकी हालत बहुत खराब थी। उनकी अपनी दिक्कतें थीं किसी की दादी झगड़ा करती किसी के पिता जी दारू पीकर मारपीट करते। एक कहावत भी है “सूर्य अस्त गढ़वाली मस्त”- ये कहावत शराब पीने के संदर्भ में प्रयोग की जाती है। जब छोटी थी मैंने शराब का असर देखा भी है अपने गांव में। हर रोज गाँव में दो-चार लोग कम से कम ऐसे होते ही थे जो शराब पीकर गाली देते। कभी किसी को व्यक्तिगत तौर पर किसी एक को, तो कभी पूरे गांव वालों को संबोधित करते हुए। दूसरे लोग उसे एक तरह से मनोरंजन के रूप में लेते थे। लेकिन दिक्कत और शर्मिंदगी उसके घर के सदस्यों खासकर पत्नी और बच्चों को उठानी पड़ती। पिताजी गांव ही नहीं पूरे इलाके में वे एक बेहतर और जुझारू शिक्षक व इंसान के तौर पर जाने जाते थे और थे भी। लेकिन वे भी खूब शराब पीते थे। घर में माँ को पिताजी की शराब की आदत कारण मैंने डर के साए में जीते हुए देखा। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उन्होंने शराब पीकर किसी बाहरी व्यक्ति को कुछ कहा हो। लेकिन हर बार पीकर घर में झगड़ा और मार-पीट होना तय होता था। माँ के साथ-साथ वो डर मेरे भीतर भी कहीं बैठ गया। पहाड़ों में शराब के खिलाफ महिलाओं ने बहुत आंदोलन किए हैं। हालाँकि लड़ाई-झगड़े का कारण सिर्फ शराब नहीं होती है बल्कि पुरुष प्रधान मानसिकता भी है।
एक बार रसूल हमजातोव की किताब मेरा दागिस्तान पढ़ रही थी उसमें उन्होंने लिखा था कि उनके यहाँ फसलों के बर्बाद होने संबंधी गालियाँ दी जाती हैं। मुझे बहुत अचरज हुआ ऐसी समानता देखकर हमारे यहाँ पर भी तो फसलों, खेतों, गोरुओं (पालतू पशुओं) संबंधी गालियाँ दी जाती हैं। फिर सोचा एक जैसी जीवन परिस्थितियों के कारण बोल-चाल में समानता आनी लाज़िमी है। हम भी जब आपस में गाली देते सबसे प्रिय गाली यही होती कि तुम्हारे घर में भांग जम जाए या तुम्हारी भैंस ढंगार में गिर जाए।
शहरों के बच्चों को देखती हूँ तो लगता है इस तरह का बचपन सुविधामय भले ही है लेकिन बंधन इतने हैं। घर से दो कदम बिना बड़ों की निगरानी के घर से बाहर निकाल ही नहीं पाते। इस तरह के माहौल में जीवन अनुभव बहुत सिमटे हुए होते होंगे। हम लोग थे तो माँ-बाप को खेत-जंगल से फुर्सत की कहाँ होती थी बच्चों को देखते। हम चाहे जो भी करते लेकिन अपने स्तर पर काफी समझदार और आत्मनिर्भर थे ही। दादा-दादी को जो थोड़ी-बहुत फुर्सत होती भी तो वो दौड़ते-भागते बच्चों कम ही नियंत्रित कर पाते।
कुछ दिनों पहले फरहान अख्तर की एक शार्ट फिल्म ‘पॉजिटिव’ देखी जिसमें एक व्यक्ति बताता है कि उसे बचपन में कुछ बातों का पूरा यकीन था जैसा वो सोचता है चीजें वैसी ही होंगी। अपने बचपन को याद करती हूँ मेरी भी कुछ कल्पनाएं थीं जो मेरे लिए बेहद वास्तविक थीं। मैं पहाड़ों की चोटियों पर टिके आसमान को ललचाई हुई नजर से देखा करती। अक्सर सोचती जब कभी बड़ी हो जाऊँगी तो वहाँ चोटी पर जाकर आसमान को छूकर देखूंगी कैसा लगता है।
ऐसा ही जुगनुओं के मामले में हुआ करता। बरसात में जब चारों ओर जुगनू चमकते तो मैं बहुत खुश हो जाया करती थी कि तारे घरों और खेतों में उतर आए हैं। हम लोग जुगनुओं को अपने हाथों में पकड़ते। कई बार पकड़ में आते कई बार छूट भी जाते लेकिन एक दिन देखा कि जुगनू कोई तारा नहीं बल्कि पंख वाला कीड़ा है तो बहुत दुख हुआ था।
मेरे बचपन की सबसे शानदार कल्पना आकाशवाणी को लेकर थी। समाचारों या कार्यक्रम के पहले वाला उसका संगीत मुझे बहुत प्रिय था। ‘यह आकाशवाणी है’ शब्द को मैं सुनती कि यह “यह आकाश पाणी है”। इस तरह से मुझे लगता कि आसमान कोई ऐसी जगह है जहाँ पानी ही पानी होता है। ये जो आवाज है उसी दुनिया से आ रही है, कुछ लोग वहाँ बैठकर कुछ न कुछ सुनाते रहते हैं। आसमान की ओर भी देखती लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखता। जब रेडियो ऑन होता तो रेडियो के छेदों से भी अंदर झांकती शायद इसके भीतर वो दुनिया हो जहाँ से लोग बोलते हैं। सिवाय अंधेरे के कुछ नहीं दिखता था। सही शब्द आकाशवाणी पता चलने पर मैं बहुत दुखी हुई थी। आज भी यह शब्द मुझे पसंद नहीं है। मुझे वो बचपन वाला आकाशपाणी शब्द ही पसंद है।
हालाँकि बचपन की ऐसी बहुत सारी कल्पनाएं थीं जिनके टूटने पर दुख हुआ था। ये ये घटनाएं ऐसी हैं जिनसे बहुत टूटने जैसा लगा आज भी लगता है कि काश ये चीजें मेरी कल्पना के मुताबिक होतीं। आकाशपाणी कोई पानी वाली खूबसूरत दुनिया होती, जुगनू सच में तारे ही होते और किसी दिन आसमान को छूकर-कुरेद कर देख पाती कि नीली पट्टी आखिर कैसी है जहाँ धूप बारिश बर्फ समाई है और वक्त वक्त पर काली, स्लेटी या रंगबिरंगी भी हो जाती है।
अब घर जाने पर जीवन का पिछला प्रेम जैसे फिर तीव्रता से याद आता है। मैं छत पर जाती हूँ। छह-सात साल ही तो बीते हैं जब मैं छत पर जाकर बात किया करती। प्रेमी को बताया करती ऐसे खेतों में फसल उगी है, ये जो आवाज आ रही है पानी की, ये खेतों में फसलों के लगाया गया है। उसने शायद उस पर एक अच्छी कविता भी लिखी। फिर उन्हीं दिनों मैंने उसके यहाँ के फूलों-पेड़ों के बारे में पूछकर बुरांश और पलाश को लेकर कुछ लिखा था। लेकिन दुनियाएं, कल्पनाएं टूटती हैं फिर नई बनती हैं, फिर टटूती हैं। गांव जाकर मुझे वो खेतों का पानी उस पर हमारी लंबी बातचीत याद आती है। मुझे लगता है गांव और जंगल हमें अधिक कल्पनाशील बनाने के साथ संघर्षशील भी बनाते हैं। तब मैंने पलाश नहीं देखे थे लेकिन पलाश के फूलों से जोड़ता हुआ प्रेमी साथ था। आज मैं जहाँ हूं, यहाँ खूब पलाश के फूल खिले हैं। मैं बस इन फूलों का ही पीछा कर पाती हूँ अब। कभी लगता है कि प्रेम इस तरह से भी जिंदा रह सकता है। तो कभी लगता है जैसे एक बार फिर मैं इस लाल आग में झुलस जाऊंगी।
कुछ ही सालों में गांव भी खूब बदले हैं। टीवी, फोन बच्चों तक पहुंच गए हैं। लेकिन बच्चों को जहाँ एक खुला आसमान मिलेगा एक समय बाद सब चीजों से ऊबकर खुले आसमान के नीचे ही खेलना पसंद करेगें। तमाम संघर्षों के साथ गाँवों में जीवन और हवा अभी भी बाकी है ही, मैं पहाड़ों के संदर्भ में यह बात ज्यादा यकीन से कह सकती हूँ।
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