Sunday 8 October 2017

संवाद के प्रतीक घसियारियों के गीत


गीत किसी भी समाज की जिंदगी की सांस होते हैं लोक गीतों के साथ यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है। श्रमिक जीवन एवं प्रकृति से समीपता से गीतों में जीवन की कठिनाइयाँ और उन से लड़ने की ताकत दोनों ही दिखते हैं।  घसियारियों के द्वारा गाए जाने वाले गीतों को बाजुंबद या दुआ कहा जाता है।  लोकगीतों को उस परिवेश से जोड़कर ही समझा जा सकता है जहाँ ये पैदा होते हैं, जिंदा भी इन गीतों उसी लोक में रखा जा सकता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इनका कोई रचनाकार है। लोक में ये प्रवृति ही नहीं होती यहाँ पर सारे गीत सभी के होते हैं। एक ही गीत को अलग-अलग तरीके से गाया जा सकता है। जिस किसी घसियारी को जंगल,खेतों में अपनी अभिव्यक्ति जिस शब्द, जिस पंक्ति के माध्यम से उकेरनी हो वह उसी तरह गीत रच डालती है।

गढ़वाल जो कि एक पहाड़ी क्षेत्र है यहाँ की अधिकांश अर्थव्यवस्था महिलाओं पर निर्भर करती है। महिलाएं यहाँ सिर्फ घास, गट्ठर या लकड़ी नहीं ढोती हैं बल्कि पूरा पहाड़ ढोती हैं। वैसे तो हर लोक की तरह यहाँ भी अलग-अलग अवसरों के लिए अलग-अलग लोक गीत होते हैं उन्हें कई हिस्सों में बाँटा जा सकता है। लेकिन बाजूबंद गीतों को महिलाओं से सर्वाधिक जुड़े हुए हैं।

इन महिलाओं का जीवन घर-द्वार से लेकर, खेतों और जंगलों तक फैला हुआ कहा जा सकता है। गीत यूँ ही पैदा नहीं होते। उनके पीछे एक संघर्ष इतिहास होता है। यहाँ की हर स्त्री के जीवन का इतिहास एक सा ही होता है। दरअसल ये गीत उन्हीं जंगलों खेतों से बचे रह सकते हैं जहाँ उपजते हैं और इन गीतों की संरक्षक यही श्रमशील महिलाएँ हो सकती हें।  

हालाँकि एक नॉस्टेलेजिया के भाव के तहत लोग शहरों में भी इन गीतों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं उनको संकलित करके। लेकिन संकलन के बाद इनके लोक की प्रकृति गायब हो जाती है। इन गीतों को बचाए रखने का एक ही तरीका उस जीवन को बचाया जाए उन महिलाओं को बचाया जाए जहाँ से ये उपजते हैं।

जीवन में बहुत कुछ बदलाव आए हैं। इस बीच टीवी ने पहाड़ों के दूरजराज के इलाकों में भी घुसपैठ कर दी है। एक पुरानी पीढ़ी है जो अभी भी उन गीतों के साथ जीती हैं। एक नई पीढ़ी है जो इनको भुला रही है। हालाँकि नई पीढ़ी को लिए इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। नई पीढ़ी लिख-पढ़ रही है, खेतों-जंगलों से उनका नाता कम हो रहा है। इनको भी पता है कि उनकी पहले की पीढ़ियों को संघर्ष से क्या मिला, कुछ भी तो नहीं। इनके संघर्षों को कीमत कोई जान ही नहीं पाया। शारीरिक श्रम का मूल्य वैसे भी इस समाज व्यवस्था में कहाँ कुछ माना जाता है।

हालाँकि होना ये चाहिए कि इस नई पीढ़ी को इन गीतों को नए तरीके से नए संघर्षों के साथ जिंदा रखे।अक्सर मैंने महिलाओं को बात करते हुए सुना है कि उनको दिन भर घर में रहने या घर भर का काम करने से अच्छा बाहर यानी जंगलों और खेतों का काम लगता है। उनका कहना होता है कि दिन भर घर में छोटे-छोटे काम करने में समय तो चला जाता है लेकिन निरर्थक सा लगता है। जबकि ये लोग खेतों की गुड़ाई करके या जंगल से दो भारे घास नहीं ला लेती हैं तब तक इनको लगता है कोई सार्थक काम नहीं किया है। ऐसा ये महिलाएं यूँ ही नहीं कहती हैं उसके पीछे जीवन को देखने की इनकी दृष्टि है। चाहे बारिश हो या बर्फ पड़े अगर घास नहीं खत्म हो जाता है तो इनको गोरुओं सहित ये भी बेचैन हो जाती हैं। जितनी चिंता ये महिलाएं परिवार की करती हैं उतनी ही इनकी चिंता में इनके गोरु भी बन रहते हैं।

जंगलों या खेतों में गाए जाने वाले ये गीत एक-दूसरे से संवाद करने का माध्यम होते हैं। बाजूबंद गीतों में पहली और आखिरी पंक्ति तुकंबदी के लिए प्रयोग की गई हैं।
एक गीत को यहाँ देखा जा सकता है जब एक घस्यारी गीत के जरिए के जरिए पूछती नाम पूछती है-
कागज क तऊ।
पाल्या पाखा की घस्यारी, बतौ क्य छ तेरु नऊँ।
तारु छुमा बौ।।
फिर दूसरी घस्यारी जवाब देती है कि मेरा नाम छैला है-
कागज क तऊ।
पाल्या पाखा की घस्यारी, छैला मेरु नऊ।
तारु छुमा बौ।।
सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक त्रेपन सिंह चौहान लिखते हैं कि बाजूबंद गीतों को दुख और उदासी के गीतों तक सीमित रखना कभी भी इन गीतों के न्याय नहीं होगा। वे कहते हैं कि बाजूबंद और न्योली पहाड़ की महिलाओं को ही नहीं बल्कि उस समाज के जीवन को समग्रता में प्रस्तुत करते हैं।
कोठारी का खाना
गाड़ पड़ी जौला दीदी, घास का बाना

कागज का तउ
गाड़ पड़िगैन द्वीई बैणी, तिलपाड़ा रऊ।
एक घसियारिन दूसरी से कह रही है कि दीदी इस घास की खातिर तो हम लोग गाड(नदी) में गिर जाएंगे। फिर दूसरी कहती है कि हम दोनों बहनें गाड में गिर गई हैं, तिलपाड़ा रऊ। ये गीत बताते हैं कि किस तरह से जीवन से तंग आकर महिलाएं जंगलों में ही किसी न किसी तरह मौत के मुँह से समा जाती हैं।

सासू बोदी मैंक तई झट ल्योऊ घास
मन म सोची थऊ माँजी लगौलू फाँस।
सासू जीन बोली मैंक तू घास जैई,
तौं पाड़ पाखौन तू घर निं आई

इस पुरुष सत्तात्मक समाज में एक स्त्री को ही शोषण का हथियार बना दिया जाता है। यहाँ पर घसियारी बहुत दुखी है क्योंकि उसकी सास उसे जल्दी से घास लाने को कहती है। साथ में ताने भी देती है कि तुम वहाँ से वापस मत आना। सास के तानों से दुखी घस्यारी अपनी माँ को याद करते हुए कह रही है कि इस तरह से तो फांसी लगाकर जान दे देंगी।

देश में स्त्री साक्षरता वैसे भी पुरुष साक्षरता से कम है। हालाँकि अभी स्थिति कुछ सुधरी है लेकिन पूरी तरह नहीं। लड़कियाँ अगर पढ़ना भी चाहती हैं तो भी कई बार उनके लिए ये आसान नहीं होता। ये गीत तब का भी है जब लड़कियों को पढ़ाना बिल्कुल निरर्थक समझा जाता था। हालाँकि आज स्थिति में बदलाव तो आए हैं लेकिन फिर भी घास काटना अभी भी महिलाओं की ही जिम्मेदारी माना जाता है और इस श्रम का कोई खास मूल्य भी नहीं है समाज में।

चाँदी शिशफूल, बै चाँदी शिशफूल
बाबा कु लाड़ीक होंदी, जाँदू इसकूल
बै जांदी इसकूल
इन पंक्तियों में घस्यारी परिवार समाज पर सवाल पर सवाल उठाती है और दुखी स्वर में कहती है कि अगर वो लड़की ना होकर बेटा होती तो आज वो भी स्कूल जाती।
इसी तरह संपत्ति संबंधी महिला अधिकारों की बात करता हुआ गीत करता गीत-
खल्याणी कु दाँदू, बै खल्याणी कु दांदू।
बाबा जी कु बेटा होंदु, बांटी माँगी खाँदू
बै बांटी माँगी खाँदू

इसमें घस्यारी दुख प्रकट करते हुए कह रही है कि अगर वो बेटी के स्थान पर बेटा होती तो उसका भी पिता के घर में हिस्सा होता। समाज ने महिलाओं को भले ही बहुत से अधिकारों से वंचित रखा है। लेकिन इन महिलाओं को अपने हकों की चिंता है और इसका एहसास भी। दफ्तरों में बैठी महिलाएं ही अधिकारों के बारे में नहीं सोचती हैं बल्कि जंगलों-खेतों में काम करने वाली महिलाएं भी उतनी जागरुक हो सकती हैं अपने अधिकारों के लिए बस मौके सबको एक से नहीं मिलते।

बहू के लिए मायके जाना बहुत आसान नहीं होता है। उसे सास, पति या ससुर से से पूछकर जाना पड़ता है और कई बार तो मायका बहुत दूर भी होता है। ये गीत तब के भी हैं जबकि यातायात के साधन नहीं थे। चिट्ठी लिखना भी इतना सुलभ नहीं था। मोबाइल फोन का प्रचलन तो और नया है।

दे परोठी दूद, बै दै परोठी दूद
नीं लगाणू बाजू गैल्या, मैं माँजी की खुद
बै मैं माँजी की खुद
घस्यारी अपनी गैल्याण (सहेली) से कह रही है कि तू ये गीत मत गाया कर मुझे माँ की बहुत याद आती है।

महिलाएं रिश्तों को लेकर अधिक संवेदनशील होती हैं । एक स्त्री और पुरुष की भावनाओं की रेंज एक सी हो ये जरूरी नहीं है। इस गीत के जरिए इसे समझा जा सकता है-
सोना गाड़ी रत्ती।
मेरी माया गला-गला तेरी माया कत्ती
खुद लैगी बौ

घस्यारी अपने प्रेमी से कह रही है कि मैं तो तुमसे बहु अधिक प्रेम करती हूँ लेकिन तुम अपना बताओ तुम कितना करते हो। एक स्त्री प्रेम तो कर रही है लेकिन वो ये भी जानना चाहती है कि प्रत्युतर में उसे उतना ही प्रेम मिलेगा कि नहीं। यहाँ पर आँख मूंदकर प्रेम करने की धारणा को तोड़ती है स्त्री।

जिस लड़की का मायका नहीं होता उसके लिए ससुराल और भी भयानक हो जाता है क्योंकि मायका ही वो जगह होता है जहाँ वो ससुराल की यातनाओं से कुछ समय के लिए विराम पा सकती है। अगर मायका नहीं होता है तो उसे हर हाल में ससुराल में ही रहना पड़ता है। उसके लिए कोई दूसरा ठौर नहीं होता है।

हिंसर की गोंदी,
मैती आयाँ मैती लेण, निर्मेतिणी रोंदी।
खुद लैगी बौ
घसियारी का दुख है कि जिनके मायके वाले होते हैं उनको तो लेने मायके वाले आ जाएंगे। लेकिन जिनका कोई मायके वाला नहीं होता उनके लिए तो हमेशा रोना ही रोना लिखा है।

नथुली का गाला
कु घरू क घर दिनी, बाना न, बगौंदू गंगाल।
दौ छलाया दौ
इस गीत में बहुत दुखी और निराश होकर घसियारिन अपने पिता को कोसती है और कहती है कि ऐसे घर में ब्याहने से तो अच्छा होता कि पिता मुझे गंगा में ही बहा देते।
घुगती घुराई।
बामण कू मुरदा मरी, जैन जुगता जुड़ाई।

इस गीत में घसियारिन ससुराल से तंग आकर रिश्ता जुड़वाने वाले पुरोहित को भी गाली देती है उसका कोई सगा मर मर जाए जो उसने ऐसा घर में रिश्ता जुड़वाया।
अक्सर पति घरों से बाहर चले जाते हैं तो घर में इंतजार करती स्त्री के लिए दुख बढ जाता है परिवार की सारी जिम्मेदारी संभालते हुए वो इस तरह से गीतों में गरीबी की भी शिकायत करती है।

दुकानी कु नफा
लाणक थेकली निं च, खाणक तैं गफा
ना खाने के लिए खाना है ना कपड़े हैं पहनने के लिए।
जीतोड़ मेहनत के बाद भी घस्यारी गरीबी से दुखी है। वो कह रही है कि ना तो खाने के लिए खाना, ना पहनने के लिए कपड़े हैं।

गांवों की खासकर पहाड़ी गांवो की ये बहुत तल्ख हकीकत है कि रोजगार के लिए पति अक्सर शहरों की ओर चले जाते हैं। पति-पति जीवन का काफी कम हिस्सा ही साथ में गुजार पाते हैं। मोबाइन के आने से पहले तक चिट्ठी ही दोनों को जोड़ने रहने का जरिया होता है।

तामा की तामी
चिट्ठी म लिखी देण, राजी खुशी स्वामी।
कमाने के बाहर जा रहे पति से कहती है कि तुम चिट्ठी के जरिए अपने हाल-चाल बताते रहना।

पहाड़ी समाज का जीवन हमेशा से जंगलों पर निर्भर रहा है। सत्ताएं प्राकृतिक संसांधनों पर नियंत्रण के लिए कई तरह के कानून बनाती रही हैं। इन कानूनों के जरिए घास-लकड़ी जैसे तमाम संसांधनों से जनता को वंचित करती रही हैं। इस लोक गीत में घस्यारी और पतरोल (वनकर्मी) का मार्मिक संवाद है। क्योंकि पतरोल नौकरी भले ही राजा या सरकार की करता है लेकिन उसकी संवेदनाएं घसियारी के साथ हैं क्योंकि वह भी तो उसी समाज का हिस्सा है।
फूली जाली जाई।
बांज काटदारी नौनी, कै गौं कि छाई।
बबला की कूची।
कै बि गौं कि होली मैं, तू क्य करदी पूछी
गिंजाला कू गांज।
सरकारी छ जंगल, किलै काटदी बाँज
थकुला की थरी।
राजा कौंकु मरी, जौन बंद जंगल करी
घमकायू घण
तू इनी जाणदी छई, केक आई
सरकारी त सुई
सैसर्यों कु मरी, जैन भैंसी धरी दुई।
झगुली कु मैल।
मैं इनू पूछदू, कु छ तेरा गैल।
साग लाई कोई।
दैव भग्यान कुई एकल्वार्स्या न होई
खेत गाड़ी मूला
मैं काटलू बाँज तू बांदली पूला
डाला पक्या बेर।
तू लांदी वार-पार, मैं होंदी अबेर।

इसें घसयारिन और पतरोल (वनकर्मी) का मार्मिक संवाद है। पतरोल घस्यारी को बांज काटने से रोकता है तो वह राजा को कोसती है कि राजा ने जंगल को आम लोगों के लिए बंद क्यों कर दिया। पतरोल कहता है कि जब उसे पता ही ही है तो क्यों आई है फिर जंगल। फिर घसियारी कहती है कि वो घर में अकेली है और ससुराल वालों को भी कोसती है, जिन्होंने दो-दो भैंसे पाली हुई हैं। बाद में पतरोल भी नरम पड़ जाता है और घसियारी की व्यथा समझकर उसे घास के गठ्टर बनाने का प्रस्ताव देता है। घस्यारी कहती है तुम तो इधर उधर की बात कर रहे हो लेकिन मुझे तो देर हो रही है।

इसके अलावा पहाड़ी महिलाओं के सौंदर्य का वर्णन करने वाले गीत भी हैं। महिपाल सिंह नेगी मानते हैं कि इन गीतों की रचना चरवाहों या चिरांती पुरुषों ने की होगी।
चिलम की सुट्ट।
काँठा की जुन्याली सुमा, उज्याला सी मुट्ट

इसमें महिला को चांदनी की तरह बेहद खूबसूरत बताया गया है। पुरुषों द्वारा स्त्रियों के लिए रचे गए इन गीतों में स्त्री की सुंदरता चेहरे इत्यादि का काफी वर्णन वाले होता है। जबकि महिलाएं जब गीत लिखती हैं तो उनके गीतों में पुरुषों का चेहरे या सुंदरता का वर्णन बहुत ही कम आता है। घस्यारियों के गीत कहीं भीतर से उपजते हैं जो कि भावनाओं को अधिक पकड़ती हैं। ये सिर्फ लोकगीतों का मसला नहीं है। मुख्यधारा के साहित्य की भी यही दिक्कत है जिसमें स्त्री को देह की सुंदरता को प्रस्तुत किया जाता है। जबकि स्त्रियाँ संवेदनाओं को अधिक पकड़ती हैं।

दरअसल तुकबंदी के लिए जो शब्द प्रयोग किए जाते हैं भले ही संवाद में सीधे तौर पर उनका कोई मतलब नहीं होता है लेकिन ये शब्द भी इस लोक जीवन से खास सरोकार रखते हैं। गिजाँला (जिससे धान कूटा जाता है), हिसर (पहाड़ी फल जो झाडियों में उगता है), नथुली(नथ), कोठार (लकड़ी का बक्सा जो आमतौर पर धान रखने के लिए प्रयोग किया जाता है), परोठी (दही रखने  के लिए लकड़ी का बना हुआ बर्तन), घुगती (चिड़िया) झंगोरा (मोटे अनाज का प्रकार) या जो भी प्रयोग किए जाते हैं उनका जीवन में बहुत महत्व होता है। इन शब्दों, फलों, पक्षियो, अन्य सामानों के बिना पहाड़ जिंदा ही नहीं रह सकता है। इसके अलावा गीतों को लयात्मक बनाने में तो शब्दों की भूमिका तो होती ही है। 


( "हिम आकाश" पत्रिका के सितंबर अंक में प्रकाशित लेख। इस लेख में महिपाल सिंह नेगी द्वारा संपादित पुस्तक "घसियारियों के गीत: बाजूबन्द'" से गीत लिए गए हैं। )


Sunday 30 July 2017

झूरी और होरी के रूप में मन में बसे प्रेमचंद

प्रेमचंद एक ऐसा नाम है जिसको जानने के लिए साहित्य का गहन अध्येता होने की जरूरत नहीं है। प्रेमचंद को वे लोग भी जानते हैं जिन्होंने साहित्य को बहुत नहीं पढा है और बहुत लगाव न होने के बावजूद उसे पढते हैं और पसंद करते हैं। प्रेमचंद का साहित्य अपने ही गांव घर का जीवन लगता है। उसके पात्रों की समस्या तकलीफ त्रासदी अपनी ही त्रासदी लगती है। 

किताब में जैसे खुद ही कहीं जी रहे हों। बचपन में पाठ्यक्रम में प्रेमचंद की कहानी दो बैलों की कथापढी थी। एक बार पढने के बाद फिर कई बार उसको पढा। जितनी बार वो कहानी पढी मुझे चाचा-चाची को दो बैल ही दिमाग में बैठ जाते। आज भी इस कहानी से पड़ोस के वही दो बैल आंखों में याद आ जाते हैं। और झूरी के नाम पर चाचा की याद। साहित्य यही होता है। उसके बाद गुल्ली डंडा, ईदगाह कहानी, गोदान और कुछ कुछ पढा लेकिन जो भी पढा वो उसी तरह जीवन में बसा है। ईदगाह तो बल्कि चिमटे वाली कहानी से याद है।

कुछ रचनाओं को पढते हुए हमेशा से लगता रहा है कि काश इस लेखक से मुलाकात हो पाती। रचना के बारे उस लेखक से जान पाते में रचना के बाहर के उसके जीवन को। प्रेमचंद को पढकर भी यही लगता था। काश मैं प्रेमचंद के काल में पैदा हुई होती और प्रेमचंद से मिल पाती। या प्रेमचंद इस काल के होते खैर यह सब तो हो नहीं सकता अब।

प्रेमचंद से मिलने की ख्वाइश तो पूरी होने से रही लेकिन तीन साल पहले जब मैं जुलाई यानी 2014 में बनारस जाना हुआ। मालूम हुआ कि लमही बस कुछ ही दूरी पर है। कुछ खुशी हुई लगा प्रेमचंद ना सही उनके गांव उनके घर को देख पाऊंगी और चल पड़ी एक मित्र के साथ। हालांकि तब और अब में बहुत फर्क आ चुका है। प्रेमचंद के उपन्यासों वाला गांव नहीं बचा है इसके बावजूद भीतर से बहुत खुशी हुई। वहां जाकर पता चला कि उनकी याद में वहां पर प्रेमचंद स्मारक न्यास बनाया गया है और उनके घर को पुस्तकालय में बदल दिया गया है। 

इसे सुरेशचंद्र दुबे जी ही संचालित करते हैं। इसके अलावा वहां उनका हुक्का, चरखा, उनसे संबंधित बहुत सी वस्तुएं और स्मृतियाँ मौजूद हैं। उनका हुक्का चरखा समेत वहां कई चीजें मौजूद हैं। पहले तो थोड़ा हिचकिचाहट हुई, कैसे, किससे बात करें पुस्ताकलय के बारे में। लेकिन सुरेशचंद्र दुबे जी ने खुद ही बातें आरंभ की। प्रेमचंद का घर दिखाया उनका कमरा दिखाया जहां बैठकर अक्सर प्रेमचंद लिखा करते थे।

सुरेशचंद्र ने बताया कि यहां आकर बहुत से लोग बातचीत करते हैं आश्वासन देते हैं कि पुस्तकालय के लिए मदद करेंगे लेकिन कोई इसकी मदद को आगे नहीं आता। सारे लोग प्रेमचंद पर पत्र पत्रिकाओं में लिखते तो खूब हैं, बढा चढाकर बातें की जाती हैं लेकिन पुस्तकालय और ट्रस्ट की मदद कोई नहीं करता। यहां तक कि प्रेमचंद के परिजन भी इसमें कोई रुचि नहीं दिखाते वो बड़े शहरों में रह रहे हैं और प्रेमचंद को भूल चुके हैं।

सुरेशचंद्र जी ने हमसे भी कहा था कि हम पुस्तकालय के लिए पत्रिकाएं और पुस्तकें भेजें। पूरे जोश के हमने भी सोच लिया कि हम उन्हें जरूर संपर्क करेगें और किताबें और पत्रिकाएं भेजेंगे। लेकिन औरों की तरह हम लोगों के लिए भी यह बात भी आई गई हो गई। आज जब तीन साल बाद लिख रही हूं तो याद आ गया सब कुछ। खैर सुरेशचंद जी से मुलाकात काफी अच्छी रही और उन्होंने प्रेमचंद के संबंध में बहुत सारी अन्य बातें भी बताईं। 

आखिर में उन्होंने वहां की मसाला चाय और बनारसी पान के साथ विदा किया, और हम लोग अपना आखिरी वादा आज भी पूरा नहीं कर पाए। आगे भी पूरा कर भी पाएंगे या नहीं ये अलग बात है। लेकिन प्रेमचंद मेरे जेहन में हमेशा झूरी, हीरा- मोती, हामिद और होरी के रूप में जिंदा हैं।   


Sunday 14 May 2017

तुम्हारा माँ होना

तुम सच में मां जैसी नहीं थीं, बल्कि तुमने मुझे ही मां बना लिया था.मैं अक्सर गुस्सा हो जाती कि तुमने अब तक खाना क्यों नहीं बनाया और फिर खुद ही घर के सारे काम करने लग जाती.इस तरह मुझे घर के सारे काम करने आ गए।

सारे घरों की तरह हमारे घर में सब कुछ सामान्य क्यों नहीं रहता, हमेशा यही सोचती.बच्चों के तौर पर हम भाई-बहनों को कभी गांव के बाकी घरों वाला एहसास नहीं मिल पाया.बचपन के अधिकांश हिस्से की यादें तुम्हारी बीमारी की यादें बनकर रह गईं, या मार खाई हुई चोट से रोती-झगड़ती मां के तौर पर।

मैं अक्सर खौफ में रहती कि तुम किसी दिन इसी तरह से मर जाओगी और फिर अकेले में बहुत रोती.मैं सपने देखती कि मैं बारहवीं के बाद की भी पढाई कर रही हूं और घर से बाहर किसी बड़े शहर में अकेली हूं.तब मुझे ये बहुत मुश्किल लगता कि मैं बारहवीं के बाद पढ पाऊंगी.मैं अपनी साथ की सहेलियों को अपनी इच्छाएं बताती तो कहतीं देख लेना 10वीं 12वीं के बाद तेरा बुबा( पिता) तुझे अपने घर में थोड़ी रखेगा, तेरा ब्यो कर देगा देख लेना.

तुम्हारी स्थिति को देखते हुए मैंने तब से ही फैसला कर लिया था मैं खूब पढूंगी मां, घर से बाहर निकलूंगी अपने हिस्से की जिंदगी अपने तरीके से जियूंगी.क्योंकि तुम्हारी जैसी जिंदगी मेरे लिए खौफ का सबब होती।

एक बेटी को तौर पर मैं तुमसे जितनी अधिक जुड़ी हुई थी उतना ही तुमसे गुस्सा भी हो जाती.मैं अक्सर तुम्हें दोष देती औरों की मांएं ये करती हैं, वो करती हैं, तुमने वह सब क्यों नहीं किया.उस वक्त तुम मेरे लिए सिर्फ मां थीं और मां का मतलब ही होता है हमारे समाज में मर-खप जाना.लेकिन तुम उस तरह से नहीं हो पातीं थीं.तुम किसी भी अन्य मां से ज्यादा भावुक थीं, शायद क्योंकि तुम जानती थीं कि तुम अन्य मांओं की तरह उतनी ज्यादा कामकाजी नहीं थीं.

माना जाता है कि पहाड़ी समाज में औरतें मजबूत स्थिति में रहती हैं हालांकि यह बात कुछ हद तक सही भी है लेकिन पूरी तरह नहीं.हमारे पहाड़ी समाज में भी स्त्रियां भले ही कितनी भी कामकाजी हों फिर भी पुरुष के मुकाबले उसकी स्थिति दोयम दर्जे की ही है.उसे सारे काम करके भी पति की मार पड़ती ही है.लेकिन तुम्हें तो खेती और जंगल के काम आते भी नहीं थे, तुम तो पूरे गांव घर वालों की नजरों में दोषी थी- इसके बिना कोई बैठे-बेठे कैसे खा सकता है.

हमारे समाज में स्त्रियों से सिर्फ काम करते रहने की ख्वाइश की जाती रही है.बस वो बैल की तरह खुद को काम में झोंक दें और वे ऐसा करती भी हैं.एक गढवाली गाने को उदाहण के तौर पर लिया जा सकता है जिसे लोग गाते हैं:
जैका पल्यां गल्या बल्द रिड्वा जन्यानि
तैक होयूं ईं दुन्या में रोणु सदानी
इससका मतलब है जिसने इस दुनिया में आलसी बैल और फालतू घूमने वाली स्त्री को पाल कर रखा हो उसके लिए इस दुनिया में सिर्फ ही रोना ही लिखा है.

वास्तव में सभी समाजों की स्त्रियों की अपनी–अपनी दिक्कतें हैं।ठेठ पहाड़ी समाज में अगर कोई स्त्री ये सारे काम नहीं कर पाती है तो उसकी कीमत इस समाज में ठीक उतनी ही है जितनी किसी बेकार बैल की होती है.मैं तुमसे हमेशा से यही शिकायत रही कि तुम्हें खेती के काम क्यों नहीं आते, तुम्हें गोल-गोल रोटियां क्यों बनानी नहीं आतीं.मेहमानों के आने पर तुम काम में लगी रहने के बजाय उनसे बातें करने क्यों बैठ जाती हो.इन तमाम शिकायतों के साथ तुम्हें घर गांव भर में इंसान ही नहीं समझा गया कितनी जिलल्तें झेलनी पड़ीं.

कितना बुरा लगता था जब कोई पूछता तेरी मां लुल्ली (चीख-चीख कर रोना) क्यों मार रही थी, तू समझाती क्यों नहीं अपनी मां को.इन सब में गांव के औरद-मर्द सभी शामिल होते.मैं शर्म से पानी-पानी हो जाती, गुस्सा भी आता कभी तुम पर- कभी लोगों पर और सबसे ज्यादा पिता पर.लेकिन ये हमारी संस्कृति है जिसमें महिलाओं से हर हाल में चुप रहने की उम्मीद की जाती है पति पर हाथ उठाना पाप समझा जाता है.जबकि पति का तो धर्म होता है पीटना.घर-परिवार बच्चों के नजरिए सो चाहे जो मर्जी रहा हो तुम्हारा प्रतिरोध लेकिन बदले में तुम्हारा हाथ उठाना एक स्त्री के तौर पर बिल्कुल सही था मां.कितनी बार तुम कहतीं तुम्हारे लिए जी रही हूं वरना मर जाती.हम बच्चे कितना बांध देते हैं तुम्हें मुझे इस बात का अफसोस है.

मैं आज भी अलग तरीके से सोचने की कोशिश करती हूं लेकिन आखिरकर उसी ढर्रे पर आकर सोच अटक जाती है.खाना भले ही मैं बनाऊं लेकिन उम्मीद करती हूं तू भी खाली ना बैठी रहे क्योंकि तू एक मां है.लेकिन ये अजीब नहीं है कि जिस तरह मैं तुम्हें घरेलू काम करते हुए देखना चाहती हूं पिता से ये उम्मीद नहीं करती, उसी तरह तू भी सिर्फ मुझसे उम्मीद लगाकर रखती है, भाइयों को तो तू भी आराम देना चाहती है.हम बस आपस में ही उलझ कर रह जाती हैं.हमारे समाज में हमेशा ये माना जाता है खाना बनाने का काम हमेशा मांओं का होता है।साथ ही ये भी माना जाता है कि हर लड़की को आखिरकर मां ही बनना है.
पर मां जो प्यार तुमने दिया है वो शायद आसपास के किसी बच्चे को नहीं मिल पाया.तुम्हें घर के काम बहुत पसंद नहीं थे उसमें तुम्हारा क्या कसूर था तुम खेत और जंगल के काम कर ही नहीं पातीं थीं तो भी ये इतना बड़ा मसला नहीं है, शहरी पष्ठभूमि से तुम्हारा होना तुम्हारे लिए तुम्हारे लिए सबसे बड़ा अभिशाप बना रहा था।
मैं आज भी हैरान होती हूं मां जिस उम्र में और बच्चे मां की गालियां खाया करते (हालांकि उसमें भी उन माओं का प्यार ही होता है), उस उम्र में तुम मुझे राखी, सोती सुंदरी, फ्यूंली, तीलू रौतेली, जैसी तमाम कहानियां सुनाती.सिर्फ कहानी के अन्त तक ही नहीं बल्कि उससे भी और आगे तुम कहानी को रच डालतीं तब तक जब मैं कहानी को और आगे बढाने की फरमाइश करती जाती.कविताएं सुनातीं हिलांस वाली घुघूती वाली.घिंडुड़ि कि मां घिंडुड़ि चा दूध पे ( गोरेया की मां और गौरेया ने चाय दूध पिया)  कहते हुए चाय और दूध पिलाने का तरीका कितना खुशनुमा होता था।

घिंडुड़ी (गौरेया) वाली कहानी से तुम अपनी आकंक्षाओं को ही तो दर्शा रही होती.जिस तरह तुम बहुत ही सहजता से कहानियां और कविताएं मैखिक ही रच लेतींउसके लिए वाकई कल्पनाशीलता की जरूरत होती है.तमामउम्र दराज लेखिकाओं को देखते हुए तुम्हारा चेहरा याद आता है लेकिन तुमने तो अपनी सारी रचनाओं को सिर्फ अपने बच्चों के लिए रचतीं थीं.इससे ज्यादा तुम्हारी महत्वकांक्षा क्यों नहीं थी मां! एक बेटी को तौर पर आज मैं यही कहना चाहती हूं कि मांओं को सिर्फ बच्चों में नहीं खो जाना चाहिए.

जहां तुम्हारे ससुराल या मेरे घर-गांव में मुझे आज भी साहित्यिक पत्रिकाएं और किताबें नहीं मिल पाती हैं.तुम मुझ से एक पीढी पहले ही धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, और गुनाहों के देवता जैसे तमाम साहित्य से गुजर कर कुछ उसी तरह से हो गईं थी.उनका गहरा असर अभी भी जीवन के प्रति तुम्हारे नजरिए और कल्पनाशीलता में दिखता है.लेकिन मां जीवन काल्पनिक साहित्य नहीं होता.आज भी तो अगर तुम्हारे हाथ में अगर कोई किताब, पत्रिका या अखबार ही लग जाता है तो तू खाना बनाने से लेकर धारे से पानी लाने तक के सारे काम मुल्तवी करके तल्लीनता से पढने में लग जाती हो.

मेरे शहर में आ जाने के बाद तू खुश है कि मेरी जिंदगी तुमसे बेहतर और अलग होगी.लेकिन मां मुझे अफसोस है तू अब भी भीतरी तौर पर बहुत अकेली है और मैं अब भी तेरा साथ नहीं दे पा रही हूं.शहरी जीवन की अपनी दिक्कतें हैं.मैं तेरी उम्मीदों को तोड़ना नहीं चाहती, मैं जिंदगी में बहुत बेहतर करना चाहती हूं.मैं तुम्हारी बची हुई जिंदगी को भी बेहतर बनाना चाहती हूं.मैं आपकी वाली पीढी से आगे निकलना चाहती हूं.

मैं जानती हूं मां तेरे सपने अभी भी मरे नहीं है.तेरी मंगायी गयी चूडिंयों के साथ साथ मैं कविताओं की किताब भी लेती आऊंगी।कुछ बच्चों वाली किताबे भी जिनमें आज भी तेरा मन बसता है।हालांकि मुझे तेरा चूड़ी-बिंदी सिंदूर से सजना बिल्कुल भी पसंद नहीं है, लेकिन तुम अभी तक वहां नहीं पहुंची हो कि इन चीजों का भी प्रतिरोध करो.हांलांकि तू ही कहती है कि हम स्त्रियों को ये सब क्यों करना पड़ता है जबकि पुरुषों के लिए तो सुहाग की कोई निशानी नहीं होती.ये सब जानने -समझने के बावजूद तुम ऐसी नहीं हो पाई कि इन चीजों को छोड़ दो.
मुझे जितना याद हुर्रे का ठंडा पानी आता है, चांदनी रात में चमकता पार्य बण आते हैं उन सबसे से ज्यादा तेरी याद आती है.इसलिए नहीं कि मुझे तेरी जरूरत है बल्कि इसलिए कि गति जीवन की गति को बनाये रखाजा सके.मैं चाहती हूं कि तुझे मेरा कोई भी काम ना करना पड़े एक मां के तौर पर, ना हीं तुझे मेरी मेरी कोई चिंता ना करनी पड़े.एक स्त्री के तौर पर तुम मेरे साथ चलती रहो बस.

आज पाती हूं तुझमें और मुझमें बहुत ज्यादा अंतर नहीं है.तुम्हें भी तो कुल्टा जैसे कई संबोधन झेलने पड़ते थे.लेकिन तुम्हारा विरोध बहुत तीव्र होता था.मैं तुम्हारी ठीक अगली पीढ़ी, जो घर से बाहर निकलकर भी, क्या हूं? मुझे भी ठीक इस तरह के संबोधन सुनने को मिलते रहे.इसके बावजूद मैं ठीक से विरोध तक नहीं कर पाई, बस अपने प्रेम का यकीन दिलाती रही. तुम्हारे हाथ में एक घर है जहां तुम तथाकथित रूप से खुश हो.मैं उस घर से या उस तरह के तमाम घरों से आजादी की ख्वाइश रखते हुए गोल –गोल दुनिया में गोल–गोल घूम रही हूं.

Thursday 6 April 2017

फ्यूंलड़ि और अंयार कुटा


फाल्गुन के महीने में फ्यूंली के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं। गुच्छों के रूप में खिलने वाले ये पीले रंग फूल चैत के महीना आते-आते हर जगह नजर आने लगते हैं। सामान्यत: मुझे पीला रंग बहुत पंसद नहीं है लेकिन इसका पीलापन जिंदगी में खेतों की धूल-मिट्टी की तरह रचा बसा है। संभवत: इसलिए ही कवि वीरेन डंगवाल ने इस फूल के रंग को पीताभा कहा है।

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सच कहूं फ्यूंली मेरे लिए महज उस तरह का फूल नहीं है जैसे कि गुलाब या अन्य फूल। मेरे लिए फ्यूंली का मतलब चैत के महीने का फ्यूंलड़ि याद आना। फ्यूंली का मतलब मेरे लिए अंयार कुटा होना है सहेलियों के साथ जंगल में गीत गाना है मिलजुल कर खिचड़ी खाना है। 

चैत के महीने के आने का मतलब होता है कि हमारी जिंदगी का सबसे खुशगवार त्यौहार का आना। चैत महीने के पहले दिन से ही हम लोग घर-घर की देहरी पर फूल डालना शुरू कर देते हैं और ये सिलसिला महीने की 20 गते तक चलता है। आखिर के दिन सभी लोग बच्चों को फूल डालने के बदले खिचड़ी बनाने के लिए चावल- दाल देते हैं।

रात भर बेसब्री में गुजारने के बाद सुबह का इंतजार शर्त यही कि कि घाम लगने से पहले भीटों से फूल चुनकर ले आएं। फिर आस-पड़ोस और गांव भर में जहां तक संभव हो घरों की देहरी को फूलों से सजा देते हैं। औ फ्यूंली से हम महज देहरी को ही नहीं सजा रहे होते हैं बल्कि फ्यूंली को भी सजा रहे होते हैं खुद को उसमें शामिल कर रहे होते हैं।

फ्यूंली महज फूल नहीं है। बल्कि फ्यूंली एक प्रेम में सरोबार लड़की की कहानी है। मां अक्सर फ्यूंली की कहानी सुनाते सुनाते भावुक हो जातीं शायद उनको उस वक्त अपना मायका भी याद आ जाता होगा।

मां कहती बहुत समय पहले की बात है जंगल में एक लड़की रहा करती थी उसका नाम फ्यूंली था। वो जंगल ही उसके लिए घर था। जंगल के तमाम पेड़-पौधे, घास पत्तियां, पशु पक्षियांउसकी जिंदगी थी, सांसे थीं। ये सब उसके लिए मां-पिता, भाई-बहन, सखीसहेलियां थे जिनके साथ वो जिंदगी की धड़कनें महसूस करती थी।


जब वो कुछ बड़ी हो गई तो उसकी एक राजकुमार से शादी हो जाती है। शादी के वक्त फ्यूंली बहुत उदास थी वो जान रही थी कि उसकी जिंदगी से कुछ खत्म हो रहा है। जंगल भी कहां खुश था फ्यूंली के विदा होने से। विदाई के वक्त पूरा जंगल उसके लिए उदास हो गया।

राजमहल में फ्यूंली को जंगल की बहुत खुद (याद) लगती थी। अकेले में आंसू बहाती फ्यूंली को राजमहल किसी खबेस की तरह लगता। राजकुमार ने फ्यूंली के लिए राजमहल में ही वन-उपवन बनाए कि किसी तरह तो उसका मन लगे, लेकिन जंगल की बेटी को राजमहल कहां रास आता।

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फ्यूंली की मन की उदासी ने बीमारी का रूप ले लिया। धीरे-धीरे फ्यूंली बहुत बीमार रहने लगी। फ्यूंली को अपनी मौत का एहसास गहराता गया। आखिरकर वो राजकुमार से कहती है कि वो बहुत दिन जिंदा नहीं रहेगी। मरने के बाद वो अपने जंगल के साथियों के साथ रहना चाहती है और कहती है कि उसे जंगल में वहीं दफनाया जाए । फिर वो कुछ दिन बाद वो दुनिया को अलविदा कह जाती है। 

फ्यूंली को उसकी इच्छा के अनुसार जंगल में दफना दिया जाता है। लेकिन जंगल की इस बेटी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। दफ्न हुई जगह पर से फिर से जी उठती है फूल बनकर। इन्हीं फूलों को फ्यूंली कहा जाने लगा। हर बार कहानी का अंत आते-आते मां की आंखे नम हो चुकी होती। तब मुझे मां में ना जाने क्यों फ्यूंली का अक्स नजर आता तो कभी लगता फ्यूंली मेरी सहेली होती तो कितना अच्छा होता। मां कहती हैं तब से ही सब लोग फ्यूंली को याद करते हैं।

20 गते चैत वो दिन होता जिसका हमें सबसे अधिक बेसब्री से इंतजार रहता। ये वो दिन होता जब हम सब बच्चे जंगल में जाकर साथ मिलकर खिचड़ी बनाते। मुझे याद है इसके लिए हमने कभी भी बड़ों की मदद नहीं ती। सब बच्चे मिलकर चावल-दाल, नमक, मासाला, लकड़ी, बर्तन, पानी, सारी जरूरत की चीजें लेकर गांव के ऊपर के जंगल की ओर चल पड़ते। मट्ठा और दही तो सबसे खास होते। खिचड़ी का मतलब ही होता है मट्ठा के साथ मिलाकर खाना।

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ऐसा भी नहीं था कि गांव भर के बच्चे एक साथ खिचड़ी बनाते। लड़कियां अलग समूह में बनातीं तो लड़के अलग समूह में। इसके अलवा उम्र के हिसाब से भी समूह बन जाते थे, या ऊपरी मंझले या निचले गांव के मुताबिक भी। इस तरह से कई झुंडो में बनता। लेकिन रहते सब आस-पास ही। हंसी-ठिठोली, लड़ाई झगड़ा सब होता जाता आपस में लेकिन अंयार कुटा के उल्लास में कहीं भी कमी होती नहीं दिखती।

उसी जगह पर पत्थरों से चूल्हा बनाते और उस पर खिचड़ी चढा देते। इसी बीच कई गीत या दुआ (घस्यारियों के गीत) गाते गोल-गोल घेरे में नाचने भी लगते। खिचड़ी बन जाती तो सब के सब लोग अपनी अपनी थालियां लिए खिचड़ी पर छपट पड़ते खिचड़ी पर और खिचड़ी निकाल लेने के बाद बैठेने के लिए सबसे अच्छी जगह चुनने के लिए भी इसी तरह करते।

कोई इस पत्थर पर, कोई उस पत्थर पर, कोई पेड़ की छोटी, कोई ऊंची टहनी पर चढ जाते । जो पेड़ की सबसे ऊंची टहनी पर चढ पाते सब उसकी ऐसे तारीफ करते मानो चांद छू लिया हो।

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मैं अपनी सहेलियों में सबसे छोटी थी और पेड़ की सबसे निचली टहनी पर या ऐसी जगह पर बैठ पाती जो सबके हथियाने के बाद बची रहती थी। हालांकि उसके बाद जगह का मसला भी खत्म हो जाता। अंयार कुटा के दिन की यह खिचड़ी साल भर में खाई हुई किसी भी खिचड़ी से ज्यादा स्वादिष्ट लगती। मट्ठा उसके स्वाद को और भी बढा देती है।

खिचड़ी खाने के बाद हम लोग अंयार के पेड़ से छोटी-छोटी टहनियां तोड़ लेते। फिर नजदीकी गांव की ओर टहनियां हिलाते हुए जोर-जोर से चिल्लाते- अंयार कुटा नौघराल वालु का दांत टुटा (अंयार कुटा नौघराल वालों के दांत टूटें)। वहीं दूसरी ओर से नौघराल गांव के बच्चे भी उसी तरह से चिल्ल्ताते अंयार कुटा भरपुरियागौं वालु का दांत टुटा। 


इसके अलावा इसी को बाघ को संबोधित करते हुए भी कहते जो जिसका कि पहाड़ों में हमेशा खौफ रहता। अंयार कुटा बाघा का बाबा का दांत टुटा।( अंटार कुटा, बाघ के बाबा के दांत टूटें।इस चिल्लाने के क्रम में बस गांवों के नाम बदल जाते बाकी जोश जज्बा वही रहता।

अब ये भी बताना जरूरी है कि फ्यूंली से जुड़े इस त्यौहार को अंयार कुटा क्यों कहा जाता है। अंयार एक ऐसा पेड़ है जिसके पत्ते हल्के जहरीले होते हैं। मां इसी दिन अंयार के पत्तों को कूटकर खिचड़ी के साथ मिलाती और गोरुओं (गाय, भैंस, बैल) को खिलाती। ऐसा सिर्फ मेरी मां नहीं करती थी बल्कि मेरी सहेली मीना, सोनी, प्रतिमा की मां और गांव की अन्य महिलाएं भी करतीं।


पूछने पर मां बताती कि जैसा हमारा त्यौहार है वैसा ही इनका भी तो है। फिर कहती कि ये बोल नहीं पाते तो क्या हुआ, अक्ल तो इन्हें हमसे से भी ज्यादा है रे छोरी, देखो कैसे सींग हिला रहे हैं और खाने के लिए। मां साथ में ही बताती कि छोरी बीस गति हो गई है। 

बीस का मतलब विष भी होता है। जब ये बण चरने जाएंगे तो कई प्रकार के घास पत्ते होते हैं जिनको खाने से इनको विष लग सकता है। अंयार में हल्का सा विष होता है इसलिए इनको खिचड़ी के साथ मिलाकर खिलाते हैं, ताकि बण में घास चरते समय अगर विष लगने पर उसका असर कम हो जाता है।
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ये तो अंयार कुटा का वो पक्ष है जिसके जरिए हम लोग पड़ोसी गांव के बच्चों से संवाद करते थे घुलमिल जाते थे। लेकिन अब ज्यादा अच्छे से समझ आता है ये त्यौहार बच्चों के साथ-साथ महिलाओं का भी होता था और उनके गोरुओं का भी जिनको वो उतना ही प्रेम करती जितना कि हमको।

जहां एक तरफ हम बच्चे घरों को फूलों से सजाते हैं, तो वहीं हमारे बड़े-बुजुर्ग हमें दाल चावल देते हैं इस दुनिया को खूबसूरत बनाने के लिए। वहीं महिलाएं उसी खिचड़ी के साथ अंयार को मिलाकर अपने गोरुओं को खिलाती हैं।

ये वही मांएं जो अपने इन गोरुओं को बचाने के लिए दरांती लेकर बाघ का सामना तक करने के लिए तैयार रहती हैं। खुद भले भूखी रह जाएं लेकिन अपने बच्चों और अपने गोरुओं को भूखा मरने नहीं देती हैं। अगर कोई छोटे व नए पेड़ को काट ले तो सभी उसे मिलकर कोसती हैं। कि ऐसा करते हुए उसे दया भी नहीं वह तो बच्चा है।

इसके पीछे की वजह है जीवन के प्रति मेरे गांव-घर वालों की समझदारी। क्योंकि हम जानते हैं जिंदा रहने के लिए जंगलों की जरूरत भी है तो साथ ही पशुओं की भी, भीटों में उगने वाले इन फूलों की भी।

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सोचती हूं फ्यूंली की यह लोग कथा न सुनी होती तो हमारे मनों में राजमहल के लिए आकर्षण रहा होता। हमारे दिमाग में किसी राजकुमार या राजकुमारी बनने की चाहत रहती। हमारे गांव-घर ने हमें वास्तविकता के करीब रहकर जीना सिखाया सिस कारण मैंने हमेशा फ्यूंली बनना चाहा जो जंगलों से प्रेम करती है।

पिछले कुछ सालों में मुझे कुछ अंतर जरूर दिखने को मिला है। जिस तरह से हम लोग इस त्यौहार को मनाते थे। अब कम ही ऐसे बच्चे  हैं जिनको अंयार कुटा का इतनी बेसब्री से इंतजार रहता है। हां लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, मासूम चेहरों पर इसकी खुशी झलक ही आती है।

अंयार कुटा को एक बारगी देखने पर भले ही रोमांटिसिज्म नजर आए लेकिन ऐसा है नहीं। अंयार कुटा प्रकृति के साथ हमारे वास्तविक  संबंधों पर आधारित है, जो कठिन परिस्थितियों में भी जीवन में कोमलता बनाए रखता है और उल्लासपूर्वक जीवन जीने में यकीन बनाए रखता है। 

(नैनीताल समाचार के 1 से 15 मार्च के अंक में प्रकाशित)