Thursday 6 April 2017

फ्यूंलड़ि और अंयार कुटा


फाल्गुन के महीने में फ्यूंली के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं। गुच्छों के रूप में खिलने वाले ये पीले रंग फूल चैत के महीना आते-आते हर जगह नजर आने लगते हैं। सामान्यत: मुझे पीला रंग बहुत पंसद नहीं है लेकिन इसका पीलापन जिंदगी में खेतों की धूल-मिट्टी की तरह रचा बसा है। संभवत: इसलिए ही कवि वीरेन डंगवाल ने इस फूल के रंग को पीताभा कहा है।

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सच कहूं फ्यूंली मेरे लिए महज उस तरह का फूल नहीं है जैसे कि गुलाब या अन्य फूल। मेरे लिए फ्यूंली का मतलब चैत के महीने का फ्यूंलड़ि याद आना। फ्यूंली का मतलब मेरे लिए अंयार कुटा होना है सहेलियों के साथ जंगल में गीत गाना है मिलजुल कर खिचड़ी खाना है। 

चैत के महीने के आने का मतलब होता है कि हमारी जिंदगी का सबसे खुशगवार त्यौहार का आना। चैत महीने के पहले दिन से ही हम लोग घर-घर की देहरी पर फूल डालना शुरू कर देते हैं और ये सिलसिला महीने की 20 गते तक चलता है। आखिर के दिन सभी लोग बच्चों को फूल डालने के बदले खिचड़ी बनाने के लिए चावल- दाल देते हैं।

रात भर बेसब्री में गुजारने के बाद सुबह का इंतजार शर्त यही कि कि घाम लगने से पहले भीटों से फूल चुनकर ले आएं। फिर आस-पड़ोस और गांव भर में जहां तक संभव हो घरों की देहरी को फूलों से सजा देते हैं। औ फ्यूंली से हम महज देहरी को ही नहीं सजा रहे होते हैं बल्कि फ्यूंली को भी सजा रहे होते हैं खुद को उसमें शामिल कर रहे होते हैं।

फ्यूंली महज फूल नहीं है। बल्कि फ्यूंली एक प्रेम में सरोबार लड़की की कहानी है। मां अक्सर फ्यूंली की कहानी सुनाते सुनाते भावुक हो जातीं शायद उनको उस वक्त अपना मायका भी याद आ जाता होगा।

मां कहती बहुत समय पहले की बात है जंगल में एक लड़की रहा करती थी उसका नाम फ्यूंली था। वो जंगल ही उसके लिए घर था। जंगल के तमाम पेड़-पौधे, घास पत्तियां, पशु पक्षियांउसकी जिंदगी थी, सांसे थीं। ये सब उसके लिए मां-पिता, भाई-बहन, सखीसहेलियां थे जिनके साथ वो जिंदगी की धड़कनें महसूस करती थी।


जब वो कुछ बड़ी हो गई तो उसकी एक राजकुमार से शादी हो जाती है। शादी के वक्त फ्यूंली बहुत उदास थी वो जान रही थी कि उसकी जिंदगी से कुछ खत्म हो रहा है। जंगल भी कहां खुश था फ्यूंली के विदा होने से। विदाई के वक्त पूरा जंगल उसके लिए उदास हो गया।

राजमहल में फ्यूंली को जंगल की बहुत खुद (याद) लगती थी। अकेले में आंसू बहाती फ्यूंली को राजमहल किसी खबेस की तरह लगता। राजकुमार ने फ्यूंली के लिए राजमहल में ही वन-उपवन बनाए कि किसी तरह तो उसका मन लगे, लेकिन जंगल की बेटी को राजमहल कहां रास आता।

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फ्यूंली की मन की उदासी ने बीमारी का रूप ले लिया। धीरे-धीरे फ्यूंली बहुत बीमार रहने लगी। फ्यूंली को अपनी मौत का एहसास गहराता गया। आखिरकर वो राजकुमार से कहती है कि वो बहुत दिन जिंदा नहीं रहेगी। मरने के बाद वो अपने जंगल के साथियों के साथ रहना चाहती है और कहती है कि उसे जंगल में वहीं दफनाया जाए । फिर वो कुछ दिन बाद वो दुनिया को अलविदा कह जाती है। 

फ्यूंली को उसकी इच्छा के अनुसार जंगल में दफना दिया जाता है। लेकिन जंगल की इस बेटी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। दफ्न हुई जगह पर से फिर से जी उठती है फूल बनकर। इन्हीं फूलों को फ्यूंली कहा जाने लगा। हर बार कहानी का अंत आते-आते मां की आंखे नम हो चुकी होती। तब मुझे मां में ना जाने क्यों फ्यूंली का अक्स नजर आता तो कभी लगता फ्यूंली मेरी सहेली होती तो कितना अच्छा होता। मां कहती हैं तब से ही सब लोग फ्यूंली को याद करते हैं।

20 गते चैत वो दिन होता जिसका हमें सबसे अधिक बेसब्री से इंतजार रहता। ये वो दिन होता जब हम सब बच्चे जंगल में जाकर साथ मिलकर खिचड़ी बनाते। मुझे याद है इसके लिए हमने कभी भी बड़ों की मदद नहीं ती। सब बच्चे मिलकर चावल-दाल, नमक, मासाला, लकड़ी, बर्तन, पानी, सारी जरूरत की चीजें लेकर गांव के ऊपर के जंगल की ओर चल पड़ते। मट्ठा और दही तो सबसे खास होते। खिचड़ी का मतलब ही होता है मट्ठा के साथ मिलाकर खाना।

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ऐसा भी नहीं था कि गांव भर के बच्चे एक साथ खिचड़ी बनाते। लड़कियां अलग समूह में बनातीं तो लड़के अलग समूह में। इसके अलवा उम्र के हिसाब से भी समूह बन जाते थे, या ऊपरी मंझले या निचले गांव के मुताबिक भी। इस तरह से कई झुंडो में बनता। लेकिन रहते सब आस-पास ही। हंसी-ठिठोली, लड़ाई झगड़ा सब होता जाता आपस में लेकिन अंयार कुटा के उल्लास में कहीं भी कमी होती नहीं दिखती।

उसी जगह पर पत्थरों से चूल्हा बनाते और उस पर खिचड़ी चढा देते। इसी बीच कई गीत या दुआ (घस्यारियों के गीत) गाते गोल-गोल घेरे में नाचने भी लगते। खिचड़ी बन जाती तो सब के सब लोग अपनी अपनी थालियां लिए खिचड़ी पर छपट पड़ते खिचड़ी पर और खिचड़ी निकाल लेने के बाद बैठेने के लिए सबसे अच्छी जगह चुनने के लिए भी इसी तरह करते।

कोई इस पत्थर पर, कोई उस पत्थर पर, कोई पेड़ की छोटी, कोई ऊंची टहनी पर चढ जाते । जो पेड़ की सबसे ऊंची टहनी पर चढ पाते सब उसकी ऐसे तारीफ करते मानो चांद छू लिया हो।

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मैं अपनी सहेलियों में सबसे छोटी थी और पेड़ की सबसे निचली टहनी पर या ऐसी जगह पर बैठ पाती जो सबके हथियाने के बाद बची रहती थी। हालांकि उसके बाद जगह का मसला भी खत्म हो जाता। अंयार कुटा के दिन की यह खिचड़ी साल भर में खाई हुई किसी भी खिचड़ी से ज्यादा स्वादिष्ट लगती। मट्ठा उसके स्वाद को और भी बढा देती है।

खिचड़ी खाने के बाद हम लोग अंयार के पेड़ से छोटी-छोटी टहनियां तोड़ लेते। फिर नजदीकी गांव की ओर टहनियां हिलाते हुए जोर-जोर से चिल्लाते- अंयार कुटा नौघराल वालु का दांत टुटा (अंयार कुटा नौघराल वालों के दांत टूटें)। वहीं दूसरी ओर से नौघराल गांव के बच्चे भी उसी तरह से चिल्ल्ताते अंयार कुटा भरपुरियागौं वालु का दांत टुटा। 


इसके अलावा इसी को बाघ को संबोधित करते हुए भी कहते जो जिसका कि पहाड़ों में हमेशा खौफ रहता। अंयार कुटा बाघा का बाबा का दांत टुटा।( अंटार कुटा, बाघ के बाबा के दांत टूटें।इस चिल्लाने के क्रम में बस गांवों के नाम बदल जाते बाकी जोश जज्बा वही रहता।

अब ये भी बताना जरूरी है कि फ्यूंली से जुड़े इस त्यौहार को अंयार कुटा क्यों कहा जाता है। अंयार एक ऐसा पेड़ है जिसके पत्ते हल्के जहरीले होते हैं। मां इसी दिन अंयार के पत्तों को कूटकर खिचड़ी के साथ मिलाती और गोरुओं (गाय, भैंस, बैल) को खिलाती। ऐसा सिर्फ मेरी मां नहीं करती थी बल्कि मेरी सहेली मीना, सोनी, प्रतिमा की मां और गांव की अन्य महिलाएं भी करतीं।


पूछने पर मां बताती कि जैसा हमारा त्यौहार है वैसा ही इनका भी तो है। फिर कहती कि ये बोल नहीं पाते तो क्या हुआ, अक्ल तो इन्हें हमसे से भी ज्यादा है रे छोरी, देखो कैसे सींग हिला रहे हैं और खाने के लिए। मां साथ में ही बताती कि छोरी बीस गति हो गई है। 

बीस का मतलब विष भी होता है। जब ये बण चरने जाएंगे तो कई प्रकार के घास पत्ते होते हैं जिनको खाने से इनको विष लग सकता है। अंयार में हल्का सा विष होता है इसलिए इनको खिचड़ी के साथ मिलाकर खिलाते हैं, ताकि बण में घास चरते समय अगर विष लगने पर उसका असर कम हो जाता है।
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ये तो अंयार कुटा का वो पक्ष है जिसके जरिए हम लोग पड़ोसी गांव के बच्चों से संवाद करते थे घुलमिल जाते थे। लेकिन अब ज्यादा अच्छे से समझ आता है ये त्यौहार बच्चों के साथ-साथ महिलाओं का भी होता था और उनके गोरुओं का भी जिनको वो उतना ही प्रेम करती जितना कि हमको।

जहां एक तरफ हम बच्चे घरों को फूलों से सजाते हैं, तो वहीं हमारे बड़े-बुजुर्ग हमें दाल चावल देते हैं इस दुनिया को खूबसूरत बनाने के लिए। वहीं महिलाएं उसी खिचड़ी के साथ अंयार को मिलाकर अपने गोरुओं को खिलाती हैं।

ये वही मांएं जो अपने इन गोरुओं को बचाने के लिए दरांती लेकर बाघ का सामना तक करने के लिए तैयार रहती हैं। खुद भले भूखी रह जाएं लेकिन अपने बच्चों और अपने गोरुओं को भूखा मरने नहीं देती हैं। अगर कोई छोटे व नए पेड़ को काट ले तो सभी उसे मिलकर कोसती हैं। कि ऐसा करते हुए उसे दया भी नहीं वह तो बच्चा है।

इसके पीछे की वजह है जीवन के प्रति मेरे गांव-घर वालों की समझदारी। क्योंकि हम जानते हैं जिंदा रहने के लिए जंगलों की जरूरत भी है तो साथ ही पशुओं की भी, भीटों में उगने वाले इन फूलों की भी।

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सोचती हूं फ्यूंली की यह लोग कथा न सुनी होती तो हमारे मनों में राजमहल के लिए आकर्षण रहा होता। हमारे दिमाग में किसी राजकुमार या राजकुमारी बनने की चाहत रहती। हमारे गांव-घर ने हमें वास्तविकता के करीब रहकर जीना सिखाया सिस कारण मैंने हमेशा फ्यूंली बनना चाहा जो जंगलों से प्रेम करती है।

पिछले कुछ सालों में मुझे कुछ अंतर जरूर दिखने को मिला है। जिस तरह से हम लोग इस त्यौहार को मनाते थे। अब कम ही ऐसे बच्चे  हैं जिनको अंयार कुटा का इतनी बेसब्री से इंतजार रहता है। हां लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, मासूम चेहरों पर इसकी खुशी झलक ही आती है।

अंयार कुटा को एक बारगी देखने पर भले ही रोमांटिसिज्म नजर आए लेकिन ऐसा है नहीं। अंयार कुटा प्रकृति के साथ हमारे वास्तविक  संबंधों पर आधारित है, जो कठिन परिस्थितियों में भी जीवन में कोमलता बनाए रखता है और उल्लासपूर्वक जीवन जीने में यकीन बनाए रखता है। 

(नैनीताल समाचार के 1 से 15 मार्च के अंक में प्रकाशित)

2 comments:

  1. Ji Han bahut pyari kahani h, lekin wo rajkumari nahi hai jangal ki ladki hai

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  2. Ji Han bahut pyari kahani h, lekin wo rajkumari nahi hai jangal ki ladki hai

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