Sunday 8 October 2017

संवाद के प्रतीक घसियारियों के गीत


गीत किसी भी समाज की जिंदगी की सांस होते हैं लोक गीतों के साथ यह बात कुछ ज्यादा ही लागू होती है। श्रमिक जीवन एवं प्रकृति से समीपता से गीतों में जीवन की कठिनाइयाँ और उन से लड़ने की ताकत दोनों ही दिखते हैं।  घसियारियों के द्वारा गाए जाने वाले गीतों को बाजुंबद या दुआ कहा जाता है।  लोकगीतों को उस परिवेश से जोड़कर ही समझा जा सकता है जहाँ ये पैदा होते हैं, जिंदा भी इन गीतों उसी लोक में रखा जा सकता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इनका कोई रचनाकार है। लोक में ये प्रवृति ही नहीं होती यहाँ पर सारे गीत सभी के होते हैं। एक ही गीत को अलग-अलग तरीके से गाया जा सकता है। जिस किसी घसियारी को जंगल,खेतों में अपनी अभिव्यक्ति जिस शब्द, जिस पंक्ति के माध्यम से उकेरनी हो वह उसी तरह गीत रच डालती है।

गढ़वाल जो कि एक पहाड़ी क्षेत्र है यहाँ की अधिकांश अर्थव्यवस्था महिलाओं पर निर्भर करती है। महिलाएं यहाँ सिर्फ घास, गट्ठर या लकड़ी नहीं ढोती हैं बल्कि पूरा पहाड़ ढोती हैं। वैसे तो हर लोक की तरह यहाँ भी अलग-अलग अवसरों के लिए अलग-अलग लोक गीत होते हैं उन्हें कई हिस्सों में बाँटा जा सकता है। लेकिन बाजूबंद गीतों को महिलाओं से सर्वाधिक जुड़े हुए हैं।

इन महिलाओं का जीवन घर-द्वार से लेकर, खेतों और जंगलों तक फैला हुआ कहा जा सकता है। गीत यूँ ही पैदा नहीं होते। उनके पीछे एक संघर्ष इतिहास होता है। यहाँ की हर स्त्री के जीवन का इतिहास एक सा ही होता है। दरअसल ये गीत उन्हीं जंगलों खेतों से बचे रह सकते हैं जहाँ उपजते हैं और इन गीतों की संरक्षक यही श्रमशील महिलाएँ हो सकती हें।  

हालाँकि एक नॉस्टेलेजिया के भाव के तहत लोग शहरों में भी इन गीतों को बचाने की कोशिश कर रहे हैं उनको संकलित करके। लेकिन संकलन के बाद इनके लोक की प्रकृति गायब हो जाती है। इन गीतों को बचाए रखने का एक ही तरीका उस जीवन को बचाया जाए उन महिलाओं को बचाया जाए जहाँ से ये उपजते हैं।

जीवन में बहुत कुछ बदलाव आए हैं। इस बीच टीवी ने पहाड़ों के दूरजराज के इलाकों में भी घुसपैठ कर दी है। एक पुरानी पीढ़ी है जो अभी भी उन गीतों के साथ जीती हैं। एक नई पीढ़ी है जो इनको भुला रही है। हालाँकि नई पीढ़ी को लिए इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। नई पीढ़ी लिख-पढ़ रही है, खेतों-जंगलों से उनका नाता कम हो रहा है। इनको भी पता है कि उनकी पहले की पीढ़ियों को संघर्ष से क्या मिला, कुछ भी तो नहीं। इनके संघर्षों को कीमत कोई जान ही नहीं पाया। शारीरिक श्रम का मूल्य वैसे भी इस समाज व्यवस्था में कहाँ कुछ माना जाता है।

हालाँकि होना ये चाहिए कि इस नई पीढ़ी को इन गीतों को नए तरीके से नए संघर्षों के साथ जिंदा रखे।अक्सर मैंने महिलाओं को बात करते हुए सुना है कि उनको दिन भर घर में रहने या घर भर का काम करने से अच्छा बाहर यानी जंगलों और खेतों का काम लगता है। उनका कहना होता है कि दिन भर घर में छोटे-छोटे काम करने में समय तो चला जाता है लेकिन निरर्थक सा लगता है। जबकि ये लोग खेतों की गुड़ाई करके या जंगल से दो भारे घास नहीं ला लेती हैं तब तक इनको लगता है कोई सार्थक काम नहीं किया है। ऐसा ये महिलाएं यूँ ही नहीं कहती हैं उसके पीछे जीवन को देखने की इनकी दृष्टि है। चाहे बारिश हो या बर्फ पड़े अगर घास नहीं खत्म हो जाता है तो इनको गोरुओं सहित ये भी बेचैन हो जाती हैं। जितनी चिंता ये महिलाएं परिवार की करती हैं उतनी ही इनकी चिंता में इनके गोरु भी बन रहते हैं।

जंगलों या खेतों में गाए जाने वाले ये गीत एक-दूसरे से संवाद करने का माध्यम होते हैं। बाजूबंद गीतों में पहली और आखिरी पंक्ति तुकंबदी के लिए प्रयोग की गई हैं।
एक गीत को यहाँ देखा जा सकता है जब एक घस्यारी गीत के जरिए के जरिए पूछती नाम पूछती है-
कागज क तऊ।
पाल्या पाखा की घस्यारी, बतौ क्य छ तेरु नऊँ।
तारु छुमा बौ।।
फिर दूसरी घस्यारी जवाब देती है कि मेरा नाम छैला है-
कागज क तऊ।
पाल्या पाखा की घस्यारी, छैला मेरु नऊ।
तारु छुमा बौ।।
सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक त्रेपन सिंह चौहान लिखते हैं कि बाजूबंद गीतों को दुख और उदासी के गीतों तक सीमित रखना कभी भी इन गीतों के न्याय नहीं होगा। वे कहते हैं कि बाजूबंद और न्योली पहाड़ की महिलाओं को ही नहीं बल्कि उस समाज के जीवन को समग्रता में प्रस्तुत करते हैं।
कोठारी का खाना
गाड़ पड़ी जौला दीदी, घास का बाना

कागज का तउ
गाड़ पड़िगैन द्वीई बैणी, तिलपाड़ा रऊ।
एक घसियारिन दूसरी से कह रही है कि दीदी इस घास की खातिर तो हम लोग गाड(नदी) में गिर जाएंगे। फिर दूसरी कहती है कि हम दोनों बहनें गाड में गिर गई हैं, तिलपाड़ा रऊ। ये गीत बताते हैं कि किस तरह से जीवन से तंग आकर महिलाएं जंगलों में ही किसी न किसी तरह मौत के मुँह से समा जाती हैं।

सासू बोदी मैंक तई झट ल्योऊ घास
मन म सोची थऊ माँजी लगौलू फाँस।
सासू जीन बोली मैंक तू घास जैई,
तौं पाड़ पाखौन तू घर निं आई

इस पुरुष सत्तात्मक समाज में एक स्त्री को ही शोषण का हथियार बना दिया जाता है। यहाँ पर घसियारी बहुत दुखी है क्योंकि उसकी सास उसे जल्दी से घास लाने को कहती है। साथ में ताने भी देती है कि तुम वहाँ से वापस मत आना। सास के तानों से दुखी घस्यारी अपनी माँ को याद करते हुए कह रही है कि इस तरह से तो फांसी लगाकर जान दे देंगी।

देश में स्त्री साक्षरता वैसे भी पुरुष साक्षरता से कम है। हालाँकि अभी स्थिति कुछ सुधरी है लेकिन पूरी तरह नहीं। लड़कियाँ अगर पढ़ना भी चाहती हैं तो भी कई बार उनके लिए ये आसान नहीं होता। ये गीत तब का भी है जब लड़कियों को पढ़ाना बिल्कुल निरर्थक समझा जाता था। हालाँकि आज स्थिति में बदलाव तो आए हैं लेकिन फिर भी घास काटना अभी भी महिलाओं की ही जिम्मेदारी माना जाता है और इस श्रम का कोई खास मूल्य भी नहीं है समाज में।

चाँदी शिशफूल, बै चाँदी शिशफूल
बाबा कु लाड़ीक होंदी, जाँदू इसकूल
बै जांदी इसकूल
इन पंक्तियों में घस्यारी परिवार समाज पर सवाल पर सवाल उठाती है और दुखी स्वर में कहती है कि अगर वो लड़की ना होकर बेटा होती तो आज वो भी स्कूल जाती।
इसी तरह संपत्ति संबंधी महिला अधिकारों की बात करता हुआ गीत करता गीत-
खल्याणी कु दाँदू, बै खल्याणी कु दांदू।
बाबा जी कु बेटा होंदु, बांटी माँगी खाँदू
बै बांटी माँगी खाँदू

इसमें घस्यारी दुख प्रकट करते हुए कह रही है कि अगर वो बेटी के स्थान पर बेटा होती तो उसका भी पिता के घर में हिस्सा होता। समाज ने महिलाओं को भले ही बहुत से अधिकारों से वंचित रखा है। लेकिन इन महिलाओं को अपने हकों की चिंता है और इसका एहसास भी। दफ्तरों में बैठी महिलाएं ही अधिकारों के बारे में नहीं सोचती हैं बल्कि जंगलों-खेतों में काम करने वाली महिलाएं भी उतनी जागरुक हो सकती हैं अपने अधिकारों के लिए बस मौके सबको एक से नहीं मिलते।

बहू के लिए मायके जाना बहुत आसान नहीं होता है। उसे सास, पति या ससुर से से पूछकर जाना पड़ता है और कई बार तो मायका बहुत दूर भी होता है। ये गीत तब के भी हैं जबकि यातायात के साधन नहीं थे। चिट्ठी लिखना भी इतना सुलभ नहीं था। मोबाइल फोन का प्रचलन तो और नया है।

दे परोठी दूद, बै दै परोठी दूद
नीं लगाणू बाजू गैल्या, मैं माँजी की खुद
बै मैं माँजी की खुद
घस्यारी अपनी गैल्याण (सहेली) से कह रही है कि तू ये गीत मत गाया कर मुझे माँ की बहुत याद आती है।

महिलाएं रिश्तों को लेकर अधिक संवेदनशील होती हैं । एक स्त्री और पुरुष की भावनाओं की रेंज एक सी हो ये जरूरी नहीं है। इस गीत के जरिए इसे समझा जा सकता है-
सोना गाड़ी रत्ती।
मेरी माया गला-गला तेरी माया कत्ती
खुद लैगी बौ

घस्यारी अपने प्रेमी से कह रही है कि मैं तो तुमसे बहु अधिक प्रेम करती हूँ लेकिन तुम अपना बताओ तुम कितना करते हो। एक स्त्री प्रेम तो कर रही है लेकिन वो ये भी जानना चाहती है कि प्रत्युतर में उसे उतना ही प्रेम मिलेगा कि नहीं। यहाँ पर आँख मूंदकर प्रेम करने की धारणा को तोड़ती है स्त्री।

जिस लड़की का मायका नहीं होता उसके लिए ससुराल और भी भयानक हो जाता है क्योंकि मायका ही वो जगह होता है जहाँ वो ससुराल की यातनाओं से कुछ समय के लिए विराम पा सकती है। अगर मायका नहीं होता है तो उसे हर हाल में ससुराल में ही रहना पड़ता है। उसके लिए कोई दूसरा ठौर नहीं होता है।

हिंसर की गोंदी,
मैती आयाँ मैती लेण, निर्मेतिणी रोंदी।
खुद लैगी बौ
घसियारी का दुख है कि जिनके मायके वाले होते हैं उनको तो लेने मायके वाले आ जाएंगे। लेकिन जिनका कोई मायके वाला नहीं होता उनके लिए तो हमेशा रोना ही रोना लिखा है।

नथुली का गाला
कु घरू क घर दिनी, बाना न, बगौंदू गंगाल।
दौ छलाया दौ
इस गीत में बहुत दुखी और निराश होकर घसियारिन अपने पिता को कोसती है और कहती है कि ऐसे घर में ब्याहने से तो अच्छा होता कि पिता मुझे गंगा में ही बहा देते।
घुगती घुराई।
बामण कू मुरदा मरी, जैन जुगता जुड़ाई।

इस गीत में घसियारिन ससुराल से तंग आकर रिश्ता जुड़वाने वाले पुरोहित को भी गाली देती है उसका कोई सगा मर मर जाए जो उसने ऐसा घर में रिश्ता जुड़वाया।
अक्सर पति घरों से बाहर चले जाते हैं तो घर में इंतजार करती स्त्री के लिए दुख बढ जाता है परिवार की सारी जिम्मेदारी संभालते हुए वो इस तरह से गीतों में गरीबी की भी शिकायत करती है।

दुकानी कु नफा
लाणक थेकली निं च, खाणक तैं गफा
ना खाने के लिए खाना है ना कपड़े हैं पहनने के लिए।
जीतोड़ मेहनत के बाद भी घस्यारी गरीबी से दुखी है। वो कह रही है कि ना तो खाने के लिए खाना, ना पहनने के लिए कपड़े हैं।

गांवों की खासकर पहाड़ी गांवो की ये बहुत तल्ख हकीकत है कि रोजगार के लिए पति अक्सर शहरों की ओर चले जाते हैं। पति-पति जीवन का काफी कम हिस्सा ही साथ में गुजार पाते हैं। मोबाइन के आने से पहले तक चिट्ठी ही दोनों को जोड़ने रहने का जरिया होता है।

तामा की तामी
चिट्ठी म लिखी देण, राजी खुशी स्वामी।
कमाने के बाहर जा रहे पति से कहती है कि तुम चिट्ठी के जरिए अपने हाल-चाल बताते रहना।

पहाड़ी समाज का जीवन हमेशा से जंगलों पर निर्भर रहा है। सत्ताएं प्राकृतिक संसांधनों पर नियंत्रण के लिए कई तरह के कानून बनाती रही हैं। इन कानूनों के जरिए घास-लकड़ी जैसे तमाम संसांधनों से जनता को वंचित करती रही हैं। इस लोक गीत में घस्यारी और पतरोल (वनकर्मी) का मार्मिक संवाद है। क्योंकि पतरोल नौकरी भले ही राजा या सरकार की करता है लेकिन उसकी संवेदनाएं घसियारी के साथ हैं क्योंकि वह भी तो उसी समाज का हिस्सा है।
फूली जाली जाई।
बांज काटदारी नौनी, कै गौं कि छाई।
बबला की कूची।
कै बि गौं कि होली मैं, तू क्य करदी पूछी
गिंजाला कू गांज।
सरकारी छ जंगल, किलै काटदी बाँज
थकुला की थरी।
राजा कौंकु मरी, जौन बंद जंगल करी
घमकायू घण
तू इनी जाणदी छई, केक आई
सरकारी त सुई
सैसर्यों कु मरी, जैन भैंसी धरी दुई।
झगुली कु मैल।
मैं इनू पूछदू, कु छ तेरा गैल।
साग लाई कोई।
दैव भग्यान कुई एकल्वार्स्या न होई
खेत गाड़ी मूला
मैं काटलू बाँज तू बांदली पूला
डाला पक्या बेर।
तू लांदी वार-पार, मैं होंदी अबेर।

इसें घसयारिन और पतरोल (वनकर्मी) का मार्मिक संवाद है। पतरोल घस्यारी को बांज काटने से रोकता है तो वह राजा को कोसती है कि राजा ने जंगल को आम लोगों के लिए बंद क्यों कर दिया। पतरोल कहता है कि जब उसे पता ही ही है तो क्यों आई है फिर जंगल। फिर घसियारी कहती है कि वो घर में अकेली है और ससुराल वालों को भी कोसती है, जिन्होंने दो-दो भैंसे पाली हुई हैं। बाद में पतरोल भी नरम पड़ जाता है और घसियारी की व्यथा समझकर उसे घास के गठ्टर बनाने का प्रस्ताव देता है। घस्यारी कहती है तुम तो इधर उधर की बात कर रहे हो लेकिन मुझे तो देर हो रही है।

इसके अलावा पहाड़ी महिलाओं के सौंदर्य का वर्णन करने वाले गीत भी हैं। महिपाल सिंह नेगी मानते हैं कि इन गीतों की रचना चरवाहों या चिरांती पुरुषों ने की होगी।
चिलम की सुट्ट।
काँठा की जुन्याली सुमा, उज्याला सी मुट्ट

इसमें महिला को चांदनी की तरह बेहद खूबसूरत बताया गया है। पुरुषों द्वारा स्त्रियों के लिए रचे गए इन गीतों में स्त्री की सुंदरता चेहरे इत्यादि का काफी वर्णन वाले होता है। जबकि महिलाएं जब गीत लिखती हैं तो उनके गीतों में पुरुषों का चेहरे या सुंदरता का वर्णन बहुत ही कम आता है। घस्यारियों के गीत कहीं भीतर से उपजते हैं जो कि भावनाओं को अधिक पकड़ती हैं। ये सिर्फ लोकगीतों का मसला नहीं है। मुख्यधारा के साहित्य की भी यही दिक्कत है जिसमें स्त्री को देह की सुंदरता को प्रस्तुत किया जाता है। जबकि स्त्रियाँ संवेदनाओं को अधिक पकड़ती हैं।

दरअसल तुकबंदी के लिए जो शब्द प्रयोग किए जाते हैं भले ही संवाद में सीधे तौर पर उनका कोई मतलब नहीं होता है लेकिन ये शब्द भी इस लोक जीवन से खास सरोकार रखते हैं। गिजाँला (जिससे धान कूटा जाता है), हिसर (पहाड़ी फल जो झाडियों में उगता है), नथुली(नथ), कोठार (लकड़ी का बक्सा जो आमतौर पर धान रखने के लिए प्रयोग किया जाता है), परोठी (दही रखने  के लिए लकड़ी का बना हुआ बर्तन), घुगती (चिड़िया) झंगोरा (मोटे अनाज का प्रकार) या जो भी प्रयोग किए जाते हैं उनका जीवन में बहुत महत्व होता है। इन शब्दों, फलों, पक्षियो, अन्य सामानों के बिना पहाड़ जिंदा ही नहीं रह सकता है। इसके अलावा गीतों को लयात्मक बनाने में तो शब्दों की भूमिका तो होती ही है। 


( "हिम आकाश" पत्रिका के सितंबर अंक में प्रकाशित लेख। इस लेख में महिपाल सिंह नेगी द्वारा संपादित पुस्तक "घसियारियों के गीत: बाजूबन्द'" से गीत लिए गए हैं। )


2 comments:

  1. बहुत ही अच्छा पोस्ट लगा आपका ...बहुत ही आकर्षक तरीके से प्रस्तुत किया है आपने
    बचपन में जब धान की रोपाई के वक्त जब औरतें जो मजदूरी करने आती थी तो वो कजरी गाया करती थी उस समय मैं ज्यादा भाव तो नहीं समझ पाता था लेकिन धुन बहुत अच्छी लगती थी और जब समझ आना सुरु हुआ तो लोक गीतों की जगह धीरे धीरे ख़तम हो रही थी मेरे यहाँगाए जाने वाले गीतों का भी भाव लगभग वासे ही है जैसा आप के यहाँ है ...पर अब वैसा बिलकुल नहीं रहा अब मनारेगा से थोड़ी सामाजिक स्थिति सही हुई है और खेती मन मशीनो के प्रयोग से मजदूर वर्ग विस्थापित हुआ है .
    ये लोग गीत उन्हीं परिस्थितियों में ही अच्छे लगते हैं जिनके लिए गाए जाते हैं.मैं मैं चाहता हूँ की वह परिस्थितियां जो इतना दर्द देती थी खतम होनी चाहिए रही बात लोक गीत की ,उसका संरक्षण इसलिए होना चाहिए ताकि आने वाली पीढियां यह देंखे की उसका समाज किन परिस्थितियों से यहाँ तक पंहुचा है.

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