Wednesday 30 October 2019

‘मुझे धूप में तपाने के लिए मेरे खेतों, मेरी कुदालों का शुक्रिया’

विहाग वैभव युवा कवि हैं। वाराणसी में रहते हैं। उन्हें भारत भूषण पुरस्कार- 2018 देने की घोषणा हुई है। विहाग को यह पुरस्कार उनकी लंबी कविता ‘चाय पर शत्रु-सैनिक’ के लिए दिया गया है। विहाग से उनकी कविता, जीवन और विचार को लेकर अंकिता रासुरी ने लंबी बातचीत की है। इसमें मंगलेश डबराल प्रकरण से लेकर कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने को लेकर विभिन्न सवालों का विहाग ने बेबाकी और विस्तार से जवाब दिया है।




1-आपने लेखन की शुरुआत कब और कैसे की?
मेरे और पराग के साथ यह अच्छी बात रही कि हम हिंदी का ककहरा सीखकर खड़े ही हुए थे कि दादा जी ने कविता की उंगली पकड़ा दी । लोक और लोकप्रिय से लेकर गंभीर हिंदी कविता को दादा जी ने खूब जिया था।  बाबूजी के संचित कोश को हम भी जीने लगे । साल 2000 से लेकर 2002 के बीच का वक्त था।  हम दूसरी कक्षा में थे । कविताएं खूब याद रहती थीं लेकिन कविताओं के अर्थ मालूम नहीं होते थे।
साल 2002 में मेरा एक्सीडेंट हुआ। मैं गंभीर न्यूरो-साइको समस्या से ग्रसित हो गया। सालों-साल अस्पताल में भर्ती रहा। हॉस्पिटल से घर और घर से हॉस्पिटल का चक्कर लगता रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरी स्कूलिंग मटियामेट हो गई। परिवार की बड़ी पूंजी मुझे जिंदा रखने में खर्च हुई और मैं बच गया । बीमारी से निकला तो सात साल गुजर चुके थे। रजिस्टर में जैसे-तैसे नाम आगे बढ़ते रहा था।  जब मैं स्वस्थ हुआ तो नौंवीं कक्षा में पहुंच चुका था। इस दौरान कविताओं ने साथ नहीं छोड़ा था ।  दादा जी कविताएं सुनाते रहे और मेरा ईलाज होता रहा।
अब तक हम हरिवंश राय बच्चन और नीरज जैसे गीतकारों को खूब रट चुके थे। कुछ-कुछ समझने भी लगे थे। लोक कविता हमारे भीतर घुल चुकी थी। साल 2009 से ही हमने लगातार लिखने की शुरुआत कर दी थी। हालांकि इससे पहले भी छिटपुट लिखते रहे थे। कक्षा छह की एक डायरी मेरे पास है जिसमें मैंने कई मुक्तक लिखे थे। अब देखकर अच्छा लगता है कि इनमें सिर्फ तुक ही नहीं बल्कि एक अर्थ भी है।
2-लेखन में आपके गांव और घर की क्या भूमिका है?
पच्चीस साल के जिये हुए को किसी भाषा के कुछ सीमित शब्दों में कहना बेहद मुश्किल है । मेरे गांव की मिट्टी मेरी देह में शामिल है। उसे खींचकर निकाल दीजिये तो मैं कुछ नहीं बचूंगा । मैं हमेशा से उन मछलियों का शुक्रिया कहना चाहता हूं जो चढ़ती हुई धूप में मेरे जाल और कांटे में फंसकर मुझे मछुआरा होने का भ्रम बनाई रखीं। उस गाय, भैंस और बकरियों का शुक्रिया करना चाहता हूं जिन्होंने मुझे चरवाहा होने का मौका दिया । उन बनमुर्गियों का शुक्रिया जिन्होने शिकारी बनाया ।
उन मेमनों का आभार जिन्हें जीकर मैंने प्रेम और करुणा से भरना सीखा। मुझे धूप में तपाने के लिए मेरे खेतों और मेरी कुदालों का शुक्रिया। मुझे ज्यादा से ज्यादा अपमान और कम से कम प्यार देने के लिए मेरे खेल के मैदानों और बचपने के साथियों का शुक्रिया। उन हजारों-हजार चीजों का शुक्रिया जिन्होंने मुझे गढ़ा है।
परिवार की भूमिका के बारे में क्या कहूं? कौन अहंकारी जीवन देने के लिए मां-पिता को शुक्रिया कह सकता है भला। किसी का नाम लूंगा तो छूट गए लोगों का अपमान हो जाएगा । बस इतना कि अपने परिवार के लिए मैं मंहगा पड़ गया था तिसपर आखिरी दम तक लड़ने के साहस, धैर्य और ज़िद का अनुमान मैं शायद कभी लगा सकूं। दादा, मम्मी और भैया के संघर्षों का कोई विकल्प नहीं ।
3-पुरस्कर पाकर आप कैसे महसूस कर रहे हैं?
जब हम पुरस्कृत होते हैं तब दरअसल हमसे ज्यादा हमें चाहने वाले पुरस्कृत होते है। पुरस्कार कोई मानक नहीं हो सकता। मुझे जिस कविता पर पुरस्कार मिला वो लगभग दो साल पहले की लिखी हुई है । मैं अपनी कविता- यात्रा में आगे निकल आया हूं। यानी यदि पुरस्कार मानक होता तो मैं इससे अधिक का हक़दार हो गया हूं, पर ऐसा नहीं होता । पुरस्कार किसी किताब की सिर्फ वो पंक्तियां हैं जिन्हें हम पढ़ते हुए अपनी सुविधा के लिए अंडरलाइन कर देते हैं

हिंदी कविता में इस समय लगभग चार हजार युवा कवि सक्रिय हैं।  उनमें से कई साथी बहुत संतोषजनक लिख रहे हैं । ऐसे में खुद को चिन्हित किये जाने पर खुशी तो होती है । पर आपसे कह दूं , मैं अपने घनिष्ठ मित्रों से अब भी मजाक कर लेता हूं कि यार मुझे महसूस कराओ कि मुझे पुरस्कार मिला है,  मुझे महसूस ही नहीं हो रहा।  मुझे खास फर्क नहीं पड़ा, सिवाय बढ़ी हुई व्यस्तता के । पुरस्कार प्राप्ति पर मैंने कुछ कहा था , उसे दुहरा देना चाहता हूं 
कविताएं लिखना कभी सुखद नहीं हो सकता । वह आत्मा के स्नायु तंत्रों में जबर्दस्त तनाव का क्षण होता है। पीड़ाओं पर बंधती हुई पपड़ियों को पूरी निर्ममता से उघाड़ना और छीलना होता है । कविताएं लिखना चेतना पर नृत्य करती त्रासदियों और संतापों का पुनर्पाठ होता है।  ऐसे में कविताओं के संदर्भ में कुछ सुखद होता है तो यह कि हमारी पीड़ा से कोई और भी एकमेक करके हमें अकेले नहीं रहने देता।  प्रकाशित, पठनीय और प्रशंसित होना । आप सभी जिन्होंने मुझे पढ़ा , सराहा और आलोचना की – सब मेरी ही आत्मा के किसी रंग के सहचर हैं ।
4-भारत और वैश्विक लेखन में आप किस साहित्यकार से प्रभावित हैं?
पाश की प्रसिद्ध कविता ‘अब मैं विदा लेता हूं ‘ में एक पंक्ति आती है –मैं मनुष्य हूं और बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं ।  तो ये जो छोटे-छोटे अवयव हैं । जिससे मनुष्य की चेतना की निर्मिति होती है, ये प्रत्येक स्तर पर बहुआयामी होते हैं । इसे ऐसे समझें कि कवि होने के लिए कविता पढ़ना जरूरी नहीं , कवि-मन किन्हीं और अवयवों से तैयार होता है । फिर जब हमसे पूछा जाता है कि हम किन – किन लेखकों से प्रभावित हुए तो उसका यही मतलब होता है कि हम किनसे सीखते हैं ।
कौन हमें हमारी दिशा में आगे बढ़ने में मदद करता है। ऐसे में मैं यदि नाम लेना चाहूं तो कबीर और ख़ुसरो दो ऐसे नाम है जिन्होंने मेरी कविता-जमीन तैयार करने में बहुत मदद की। फिर ये नाम बढ़ता चला और जिन कविता – पुरखों का कर्ज मुझपर सबसे अधिक रहा उसमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अवतार सिंह ‘पाश’, नाज़िम हिकमत ,पाब्लो नेरुदा, ब्रेख़्त और निज़ार कब्बानी प्रमुख हैं । स्पष्ट कर दूं कि जब आप प्रिय कवि पूंछेंगी तो मेरी पास एक लम्बी फेहरिस्त होगी ।
5-हिंदी के युवा कवि की क्या भूमिका हो सकती है साहित्य से लोगों को जोड़ने में?
इस सवाल पर मुझे अभी और बहुत सोचने की जरूरत होगी । इसका कोई तुरंत उत्तर नहीं दे पाऊंगा । पर इतना कह दूं कि जीवन और जगत की जितनी सहज अभिव्यक्ति लेखक कर पायेगा वह पाठकों तक उतनी आसानी से पहुंचेगा । यह भी स्पष्ट रहे कि सहज होना सरल या सुलभ होना नहीं है।
6-मंगलेश डबराल विवाद पर आपके क्या विचार हैं?
मेरे लोक में, गांव जवार में जब कोई मां अपने बच्चे से बहुत ज्यादा खीझ जाती थी , परेशान हो जाती थी तो अक्सर झल्लाकर कहती थी कि ‘ तुम मर क्यों नहीं जाते !’  अब देखिए यदि कोई सुनने वाला यह अर्थ निकाल ले कि वह मां सचमुच में यह चाहती है कि उसका बच्चा मर जाये तो वह सुकून से रहे तो मैं ऐसे सुनने वाले समझदार की कोटि में नहीं रख सकता हूं ।
गलेश डबराल ने हिन्दी भाषा को जिया है, दिया है। ऐसे में एक व्यक्ति की हताशा , उसकी चिन्ताएं, उसका क्षोभ भी एक बार वैसा बोल सकता है। जैसा मंगलेश जी ने लिखा है। उसे एक क्षण का तनाव माना जाना और उससे उबरने में मदद करना ही उचित होगा । मंगलेश जी हिन्दी में काफी पढ़े गये हैं , खूब सम्मान पाए हैं । ऐसा सोचना गलत होगा कि यह उनका पॉपुलैरिटी स्टंट था ।

7-कश्मीर में 370 वाले मसले पर आपका स्टैंड क्या है।
मेरा पक्ष हमेशा, न्याय, समानता,सौहार्द और संघर्ष का रहा है और कोशिश रहेगी जीवन में कभी इससे डिग न होने पाऊं । वे कहते हैं इस मुद्दे को पहले ही सुलझ जाना चाहिए था हम स्वीकार करते हैं , हां पहले ही सुलझ जाना चाहिए था । पर किस तरह ? जिस तरह सुलझाया जा रहा है उस तरह? कभी नहीं। ऐसा कभी नहीं होना चाहिए था। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कहा था ‘ देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता ‘।
तो जिन्हें नक्शे में कश्मीर चाहिए उन्हें मुबारक हो । हमें कश्मीर की आवाम और उनकी तहज़ीब, उनकी सांस्कृतिक गरिमा के साथ ही उनसे बराबरी के रिश्ते के लिए संघर्ष करना चाहिए था। बंदूक की नोक पर किसी से प्यार नहीं किया जा सकता है । परिणाम के पहले बहस प्रक्रिया की प्रकृति पर होनी चाहिए । मसअला ये नहीं कि हमें क्या हासिल हुआ है बल्कि यह है कि हमने उसे कैसे हासिल किया है।
वे सब हमारे हैं , हम उनके हैं जो अमनपसंद और न्यायप्रिय हैं , जिन्हें मानवाधिकार में विश्वास है ।  जो हाथ काटकर कलाई घड़ी बाँट रहे हैं वे कितनी भी कीमती घड़ी बांट लें मैं उनका समर्थन नहीं हो सकता ।
8-कविता में विचारधारा को किस रूप में देखते हैं आप।
जो जीवन की धारा होगी वही विचार धारा होगी । मेरे लिए कविता में विचारधारा का आशय यह है कि हमारे जीवन-लक्ष्य क्या हैं , हमारे जीवन-मूल्य क्या हैं। वो कौन सी व्यवस्था है जिससे हम संतुष्ट होंगे और जिस तक हमें पहुंचना है , जिसके लिए हम संघर्षरत हैं । हमारे जीवन संघर्ष की धारा ही हमारी विचारधारा है और यही विचारधारा कविता-यात्रा की निर्णायक होती है।
जीवन से कविता है , कविता से जीवन नहीं । तो विचारधाराहीन तो मनुष्य का जीवन ही नहीं हो सकता । यदि जीवन नहीं हो सकता तो कविता भी विचारधाराहीन नहीं हो सकती ।
9-युवा लेखकों में नोटिस नहीं किये जाने का गुस्सा या क्षोभ होता है। उसे आप कैसे देखते हैं।
पुरानी पीढ़ी का नयी पीढ़ी के प्रति आविश्वास भाव कम से कम हिन्दी में तो लागातर बना रहा है । युवा-कविता को संदेह और भय की दृष्टि से देखने वाले संपादकों की भी कमी नहीं। इससे साहित्य की दुनिया का नवप्रवेशी हताश भी होता है और नाराज भी। इसी बीच अच्छे लोग भी काम कर रहे हैं पर उनकी संख्या बहुत कम हैं सो उन्हें खोजने या पाने में समय लगता है ।
मैं अपने बारे में कहूं तो मैंने 2014 में हिन्दी पत्रिकाओं की एक लिस्ट तैयार की । सबका संपादकीय पता नोट किया । अपनी दस-दस कविताओं का सेट तैयार किया और पोस्ट-ऑफिस के चक्कर काटने शुरू किया। मुझे गुस्सा इस बात का नहीं आता था कि सम्पादकों ने मेरी कविताएं नहीं छापी बल्कि इस बात का आता था कि हर पोस्ट के पीछे मेरे कम से कम साठ रुपये खर्च होते थे और सम्पादक कविताअस्वीकार का जवाब तक नहीं देते थे । तंग आकर मैंने कविताएं किसी को न भेजने का निर्णय लिए और सोशल मीडिया फेसबुक की तरफ रुख किया । वहां मुझे लोग जानने पढ़ने लगे। जब ठीक-ठाक संख्या में पाठक हो गए तो सम्पादकों की भी नज़र पड़ी कुछ विनम्र भाव में कुछ विनम्रता का नाटक करते हुए और कुछ किसी मजबूरी या लालच में पूरी अकड़ के साथ मुझतक आये । मैंने किसी को निराश नहीं किया ।

http://hindikhat.com/ से साभार

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