Thursday 6 April 2017

फ्यूंलड़ि और अंयार कुटा


फाल्गुन के महीने में फ्यूंली के फूल खिलने शुरू हो जाते हैं। गुच्छों के रूप में खिलने वाले ये पीले रंग फूल चैत के महीना आते-आते हर जगह नजर आने लगते हैं। सामान्यत: मुझे पीला रंग बहुत पंसद नहीं है लेकिन इसका पीलापन जिंदगी में खेतों की धूल-मिट्टी की तरह रचा बसा है। संभवत: इसलिए ही कवि वीरेन डंगवाल ने इस फूल के रंग को पीताभा कहा है।

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सच कहूं फ्यूंली मेरे लिए महज उस तरह का फूल नहीं है जैसे कि गुलाब या अन्य फूल। मेरे लिए फ्यूंली का मतलब चैत के महीने का फ्यूंलड़ि याद आना। फ्यूंली का मतलब मेरे लिए अंयार कुटा होना है सहेलियों के साथ जंगल में गीत गाना है मिलजुल कर खिचड़ी खाना है। 

चैत के महीने के आने का मतलब होता है कि हमारी जिंदगी का सबसे खुशगवार त्यौहार का आना। चैत महीने के पहले दिन से ही हम लोग घर-घर की देहरी पर फूल डालना शुरू कर देते हैं और ये सिलसिला महीने की 20 गते तक चलता है। आखिर के दिन सभी लोग बच्चों को फूल डालने के बदले खिचड़ी बनाने के लिए चावल- दाल देते हैं।

रात भर बेसब्री में गुजारने के बाद सुबह का इंतजार शर्त यही कि कि घाम लगने से पहले भीटों से फूल चुनकर ले आएं। फिर आस-पड़ोस और गांव भर में जहां तक संभव हो घरों की देहरी को फूलों से सजा देते हैं। औ फ्यूंली से हम महज देहरी को ही नहीं सजा रहे होते हैं बल्कि फ्यूंली को भी सजा रहे होते हैं खुद को उसमें शामिल कर रहे होते हैं।

फ्यूंली महज फूल नहीं है। बल्कि फ्यूंली एक प्रेम में सरोबार लड़की की कहानी है। मां अक्सर फ्यूंली की कहानी सुनाते सुनाते भावुक हो जातीं शायद उनको उस वक्त अपना मायका भी याद आ जाता होगा।

मां कहती बहुत समय पहले की बात है जंगल में एक लड़की रहा करती थी उसका नाम फ्यूंली था। वो जंगल ही उसके लिए घर था। जंगल के तमाम पेड़-पौधे, घास पत्तियां, पशु पक्षियांउसकी जिंदगी थी, सांसे थीं। ये सब उसके लिए मां-पिता, भाई-बहन, सखीसहेलियां थे जिनके साथ वो जिंदगी की धड़कनें महसूस करती थी।


जब वो कुछ बड़ी हो गई तो उसकी एक राजकुमार से शादी हो जाती है। शादी के वक्त फ्यूंली बहुत उदास थी वो जान रही थी कि उसकी जिंदगी से कुछ खत्म हो रहा है। जंगल भी कहां खुश था फ्यूंली के विदा होने से। विदाई के वक्त पूरा जंगल उसके लिए उदास हो गया।

राजमहल में फ्यूंली को जंगल की बहुत खुद (याद) लगती थी। अकेले में आंसू बहाती फ्यूंली को राजमहल किसी खबेस की तरह लगता। राजकुमार ने फ्यूंली के लिए राजमहल में ही वन-उपवन बनाए कि किसी तरह तो उसका मन लगे, लेकिन जंगल की बेटी को राजमहल कहां रास आता।

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फ्यूंली की मन की उदासी ने बीमारी का रूप ले लिया। धीरे-धीरे फ्यूंली बहुत बीमार रहने लगी। फ्यूंली को अपनी मौत का एहसास गहराता गया। आखिरकर वो राजकुमार से कहती है कि वो बहुत दिन जिंदा नहीं रहेगी। मरने के बाद वो अपने जंगल के साथियों के साथ रहना चाहती है और कहती है कि उसे जंगल में वहीं दफनाया जाए । फिर वो कुछ दिन बाद वो दुनिया को अलविदा कह जाती है। 

फ्यूंली को उसकी इच्छा के अनुसार जंगल में दफना दिया जाता है। लेकिन जंगल की इस बेटी की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। दफ्न हुई जगह पर से फिर से जी उठती है फूल बनकर। इन्हीं फूलों को फ्यूंली कहा जाने लगा। हर बार कहानी का अंत आते-आते मां की आंखे नम हो चुकी होती। तब मुझे मां में ना जाने क्यों फ्यूंली का अक्स नजर आता तो कभी लगता फ्यूंली मेरी सहेली होती तो कितना अच्छा होता। मां कहती हैं तब से ही सब लोग फ्यूंली को याद करते हैं।

20 गते चैत वो दिन होता जिसका हमें सबसे अधिक बेसब्री से इंतजार रहता। ये वो दिन होता जब हम सब बच्चे जंगल में जाकर साथ मिलकर खिचड़ी बनाते। मुझे याद है इसके लिए हमने कभी भी बड़ों की मदद नहीं ती। सब बच्चे मिलकर चावल-दाल, नमक, मासाला, लकड़ी, बर्तन, पानी, सारी जरूरत की चीजें लेकर गांव के ऊपर के जंगल की ओर चल पड़ते। मट्ठा और दही तो सबसे खास होते। खिचड़ी का मतलब ही होता है मट्ठा के साथ मिलाकर खाना।

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ऐसा भी नहीं था कि गांव भर के बच्चे एक साथ खिचड़ी बनाते। लड़कियां अलग समूह में बनातीं तो लड़के अलग समूह में। इसके अलवा उम्र के हिसाब से भी समूह बन जाते थे, या ऊपरी मंझले या निचले गांव के मुताबिक भी। इस तरह से कई झुंडो में बनता। लेकिन रहते सब आस-पास ही। हंसी-ठिठोली, लड़ाई झगड़ा सब होता जाता आपस में लेकिन अंयार कुटा के उल्लास में कहीं भी कमी होती नहीं दिखती।

उसी जगह पर पत्थरों से चूल्हा बनाते और उस पर खिचड़ी चढा देते। इसी बीच कई गीत या दुआ (घस्यारियों के गीत) गाते गोल-गोल घेरे में नाचने भी लगते। खिचड़ी बन जाती तो सब के सब लोग अपनी अपनी थालियां लिए खिचड़ी पर छपट पड़ते खिचड़ी पर और खिचड़ी निकाल लेने के बाद बैठेने के लिए सबसे अच्छी जगह चुनने के लिए भी इसी तरह करते।

कोई इस पत्थर पर, कोई उस पत्थर पर, कोई पेड़ की छोटी, कोई ऊंची टहनी पर चढ जाते । जो पेड़ की सबसे ऊंची टहनी पर चढ पाते सब उसकी ऐसे तारीफ करते मानो चांद छू लिया हो।

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मैं अपनी सहेलियों में सबसे छोटी थी और पेड़ की सबसे निचली टहनी पर या ऐसी जगह पर बैठ पाती जो सबके हथियाने के बाद बची रहती थी। हालांकि उसके बाद जगह का मसला भी खत्म हो जाता। अंयार कुटा के दिन की यह खिचड़ी साल भर में खाई हुई किसी भी खिचड़ी से ज्यादा स्वादिष्ट लगती। मट्ठा उसके स्वाद को और भी बढा देती है।

खिचड़ी खाने के बाद हम लोग अंयार के पेड़ से छोटी-छोटी टहनियां तोड़ लेते। फिर नजदीकी गांव की ओर टहनियां हिलाते हुए जोर-जोर से चिल्लाते- अंयार कुटा नौघराल वालु का दांत टुटा (अंयार कुटा नौघराल वालों के दांत टूटें)। वहीं दूसरी ओर से नौघराल गांव के बच्चे भी उसी तरह से चिल्ल्ताते अंयार कुटा भरपुरियागौं वालु का दांत टुटा। 


इसके अलावा इसी को बाघ को संबोधित करते हुए भी कहते जो जिसका कि पहाड़ों में हमेशा खौफ रहता। अंयार कुटा बाघा का बाबा का दांत टुटा।( अंटार कुटा, बाघ के बाबा के दांत टूटें।इस चिल्लाने के क्रम में बस गांवों के नाम बदल जाते बाकी जोश जज्बा वही रहता।

अब ये भी बताना जरूरी है कि फ्यूंली से जुड़े इस त्यौहार को अंयार कुटा क्यों कहा जाता है। अंयार एक ऐसा पेड़ है जिसके पत्ते हल्के जहरीले होते हैं। मां इसी दिन अंयार के पत्तों को कूटकर खिचड़ी के साथ मिलाती और गोरुओं (गाय, भैंस, बैल) को खिलाती। ऐसा सिर्फ मेरी मां नहीं करती थी बल्कि मेरी सहेली मीना, सोनी, प्रतिमा की मां और गांव की अन्य महिलाएं भी करतीं।


पूछने पर मां बताती कि जैसा हमारा त्यौहार है वैसा ही इनका भी तो है। फिर कहती कि ये बोल नहीं पाते तो क्या हुआ, अक्ल तो इन्हें हमसे से भी ज्यादा है रे छोरी, देखो कैसे सींग हिला रहे हैं और खाने के लिए। मां साथ में ही बताती कि छोरी बीस गति हो गई है। 

बीस का मतलब विष भी होता है। जब ये बण चरने जाएंगे तो कई प्रकार के घास पत्ते होते हैं जिनको खाने से इनको विष लग सकता है। अंयार में हल्का सा विष होता है इसलिए इनको खिचड़ी के साथ मिलाकर खिलाते हैं, ताकि बण में घास चरते समय अगर विष लगने पर उसका असर कम हो जाता है।
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ये तो अंयार कुटा का वो पक्ष है जिसके जरिए हम लोग पड़ोसी गांव के बच्चों से संवाद करते थे घुलमिल जाते थे। लेकिन अब ज्यादा अच्छे से समझ आता है ये त्यौहार बच्चों के साथ-साथ महिलाओं का भी होता था और उनके गोरुओं का भी जिनको वो उतना ही प्रेम करती जितना कि हमको।

जहां एक तरफ हम बच्चे घरों को फूलों से सजाते हैं, तो वहीं हमारे बड़े-बुजुर्ग हमें दाल चावल देते हैं इस दुनिया को खूबसूरत बनाने के लिए। वहीं महिलाएं उसी खिचड़ी के साथ अंयार को मिलाकर अपने गोरुओं को खिलाती हैं।

ये वही मांएं जो अपने इन गोरुओं को बचाने के लिए दरांती लेकर बाघ का सामना तक करने के लिए तैयार रहती हैं। खुद भले भूखी रह जाएं लेकिन अपने बच्चों और अपने गोरुओं को भूखा मरने नहीं देती हैं। अगर कोई छोटे व नए पेड़ को काट ले तो सभी उसे मिलकर कोसती हैं। कि ऐसा करते हुए उसे दया भी नहीं वह तो बच्चा है।

इसके पीछे की वजह है जीवन के प्रति मेरे गांव-घर वालों की समझदारी। क्योंकि हम जानते हैं जिंदा रहने के लिए जंगलों की जरूरत भी है तो साथ ही पशुओं की भी, भीटों में उगने वाले इन फूलों की भी।

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सोचती हूं फ्यूंली की यह लोग कथा न सुनी होती तो हमारे मनों में राजमहल के लिए आकर्षण रहा होता। हमारे दिमाग में किसी राजकुमार या राजकुमारी बनने की चाहत रहती। हमारे गांव-घर ने हमें वास्तविकता के करीब रहकर जीना सिखाया सिस कारण मैंने हमेशा फ्यूंली बनना चाहा जो जंगलों से प्रेम करती है।

पिछले कुछ सालों में मुझे कुछ अंतर जरूर दिखने को मिला है। जिस तरह से हम लोग इस त्यौहार को मनाते थे। अब कम ही ऐसे बच्चे  हैं जिनको अंयार कुटा का इतनी बेसब्री से इंतजार रहता है। हां लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है, मासूम चेहरों पर इसकी खुशी झलक ही आती है।

अंयार कुटा को एक बारगी देखने पर भले ही रोमांटिसिज्म नजर आए लेकिन ऐसा है नहीं। अंयार कुटा प्रकृति के साथ हमारे वास्तविक  संबंधों पर आधारित है, जो कठिन परिस्थितियों में भी जीवन में कोमलता बनाए रखता है और उल्लासपूर्वक जीवन जीने में यकीन बनाए रखता है। 

(नैनीताल समाचार के 1 से 15 मार्च के अंक में प्रकाशित)

Tuesday 4 April 2017

परिधानों के पीछे छिपी स्त्री मन की जकड़बंदी

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स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है- सीमोन द बोउवार का यह कथन वास्तव में सच के बहुत करीब है। स्त्री बनायी जाती है और यह प्रक्रिया दृश्य-अदृश्य रूप से हमेशा चलती रहती है। एक ऐसी प्रक्रिया जो स्वाभाविक सी लगती है। परिधान रोजमर्रा की जरूरतों का एक हिस्सा है। एक ऐसीजरूरत जिसके संबंध में कोई खास स्वस्थ बहस नहीं की जाती है। कपड़ों के आधार पर भी स्त्री पुरुषों को बांटा गया है। जरा सा भी गौर किया जाये तो महिलाओं और पुरुषों के परिधानों का एक स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है।
एक बच्ची जब पैदा होती है तब से लेकर उसे क्या पहनाना शुरू किया जाता है फ्रॉक ना। एक झालर वाली शानदार फ्रॉक। जबकि लड़के के कपड़ों में एक सादा सा परिधान होता है। वो क्या देखती है एक मोहक और चमचमाते परिधान को।और वह उसी तरह की चीजों से जुड़ती चली जाती है। जबकि लड़के के पास कपड़ों के नाम पर चयन की बहुत ज्यादा सुविधाएं भी नहीं होती हैऔर उसे परिधानों के प्रति सजग बनाया भी नहीं जाता है।इधर एक लड़की के व्यवहार में धीरे-धीरे परिधानों के प्रति सजगता बढ़ती जाती है।
परिधान की बनावट में अन्तर किया जाये तो कह सकते हैं कि एक मूलभूत अन्तर यह है कि महिलाओं के कपड़े ढीले ढाले य़ा अधिक चुस्त और फैशनेबुल होते हैं। एक बड़ा अन्तर जो है वो यह है कि महिलाओं के कपड़ों से जेब नदारद रहते हैं। क्या कारण है कि जहां एक पुरुष परिधान में जेबों की भरमार होती है कुर्ते से लेकर पैंट और शर्ट में भी वहीं महिलाओं के परिधान में जेब होती भी है तो किसी कोने पर एक सजावट के लिये। यह मात्र परिधानों या जेब का ना होना नहीं है  यह समाज में बैठी उस गहरी मानसिकता का प्रतीक है जिसके तहत महिला को अर्थव्यवस्था का हिस्सा भी मानने से इनकार किया जाता है। जाहिर है जेब का होना पैसे होने का प्रतीक है। अर्थव्यवस्था से महिलाओं को हमेशा किनारे रखा गया है। हालांकि इधर तस्वीर कुछ बदली है लेकिन तस्वीर पूरी तरह बदली है यह कहना खुद को बेवकूफ बनाना है।
जीन्स में जेब होती हैं जबकि साड़ी या अन्य पारंपरिक परिधानों में जेब नहीं बनायी जाती है यह आम मानसिकता है महिलाएं चलेंगी तो पर्स या बैग लेकर ही चलेंगी। जबकि जेब न होने की परेशानी हर रोज बाहर लिकलने वाली कोई भी महिला समझ सकती है। हालांकि अकसर बड़ी जेब वाली जींस ढूंढने में भी अक्सर लड़कियों को मशक्कत करनी पड़ती है।जेब होने की सुविधा के चलते ही महिलाएं आजकल जीन्स को तरजीह देती हैं।
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बौद्धिक स्त्रियों से भी समाज बडी विरोधाभास पूर्ण अपेक्षाएं रखता है । यदि वे अपने परिधान पर पूरा ध्यान नहीं देती तो लोग उन्हें मर्दाना स्वभाव का कहते हैं और यदि फैशन और मेकअप करती हैं तो लोग कहते हैं कि औरत औरत ही रहती है।–सिमोन
उसे कॉलेज/ऑफिस जाना है और वो फिर से अपने कपड़ो के बक्से से ऐसी ड्रेस निकाल रही है जिसे उसने कल पिछले हफ्ते या दो हफ्तों से नहीं पहना है। यह निर्भर करता है उसके पास कपड़े कितने है। दूसरी ओर लड़का दो ही जोड़ी कपड़ों को हफ्ते दो हफ्ते चला लेता है।मैं अपनी मित्रों से पूछा करती हूं कि वे हमेशा अलग अलग परिधान के लिये इतनी चिन्तित क्यों रहती हैं क्योंकि सिर्फ कपड़ों और मेकअप पर इतना पैसा और समय बर्बाद करने का क्या औचित्य है। तो अक्सर का जवाब होता है फलां सहकर्मी हर रोज नए नए कपड़े पहनती है और यदि मैं नहीं पहनूंगी तो लोग कहेंगे कपड़े नहीं है / गरीब है या कंजूस है इत्यादि इत्यादि। यह मानसिकता है क्या दरअसल । यही ना कि स्त्री को अपने सजाये संवारे रखना बहुत जरूरी है।
आमतौर पर पाश्चात्य परिधानों को अश्लील या संस्कृति को भ्रष्ट करने वाला बताया जाता है और बलात्कार का कारण इनको बताया जाता है और लगातार इसके विरोध में बयान या फरमान जारी होते रहते हैं। जबकि गौर करेंगे तो वर्तमान में पाश्चात्य परिधानों का जो रूप है वह वह वहां की महिलाओं ने वक्त के साथ अपनाया है। 19वीं सदी या उसके बाद तक भी वहां के परिधान भी लम्बे चौड़े एवं काफी हद तक असहज होते थे। गॉन विदद विंड फिल्म की नायिका स्कारलेट जब कपड़े पहनती है तो उसकी परिचारिका उसके कपड़े की बेल्ट को अधिक से अधिक कसने की कोशिश करती है। क्योंकि एक महिला को हमेशा दुबला दिखना चाहिये। या फिर ढीले ढाले परिधान हों। सुविधानुसार कम ही होते हैं।
वहीं मुस्लिम समाज की बात करे तो बुर्का पहने हुए महिलाएं बड़े शहरों में भी बड़े आराम से दिख जाती है। हिंदू समाज की महिलाएं भी घूंघट में दिख जाती हैं।मैंने अपनी एक मित्र से इस बारे में बातचीत की तो उसका स्पष्ट कहना था कि घूंघट बड़ो के प्रति सम्मान दिखाने का एक प्रतीक है जो कहीं से भी गलत नहीं है। मुस्लिम मित्र से बुर्के के औचित्य पर सवाल किया तो असका कहना था स्त्रियों के कुछ अंग ऐसे होते हैं जिसके लिये बुर्का जरूरी है। ये एक युवा पीढ़ीं के विचार हैं।
और परिधानों का बदलना काफी हद तक समाज की मानसिकता का बदलना या बदलने की कोशिश करना होता है। पश्चिम की महिलाएं ना सिर्फ कपडों के मामले में खुली सोच की हैं बल्कि अनकी सोच अन्य मामलों में भी उतनी ही खुली होती है। हालांकि यह हमेशा नहीं होता है।

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दरअसल चर्चा करने का मूल उद्द्श्य यहां कपड़ों के आकार प्रकार और बनावट नहीं है। बल्कि महिलाओं एवं पुरुषों के परिधान संबंधी आदतों में पैदा हुई भिन्नता की पड़ताल करना है।अन्य कारणों को जिस कारण एक महिला के लिये परिधान असकी जिंदगी कै महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाते हैं। और अन्य चीजें कही न कहीं गौण हो जाती है। हालांकि इसमें घर सजाना संवारना, सफाई पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देना और खाना बनाने पर विशेष ध्यान देना भी इसमें शामिल हो सकते है लेकिन फिलहाल इसी पर ही बहस केन्द्रित की जा रही है।लम्बे समय से महिला की मानसिकता को एक हर तरह से खांचे में ढालने का जो काम किया गया, परिधान उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। हालांकि परिधानों की यह जकड़बंदी कहीं टूटती नजर आ रही है तो कहीं मजबूत भी हो रही है।
आज यह काम बाजार कर रहा है। मीडिया के माध्यम से एक अलग ही महिला छवि को परोसा जा रहा है। और परिधानों में आये बदलावों को पहचाना जा सकता है। यह एक जकड़बंदी टूटने के बाद उपजी दूसरी जकड़बंदी का दौर है। और चुनौति यह है कि दोनों ही तरह की जकड़बंदी से आजाद होना है । चाहे वो पारंपरिक हो या बाजार द्वारा पैदा की गयी हो।

Saturday 1 April 2017

आदिवासी महिलाओं का जीवन संघर्ष और उम्मीद


किसी भी जगह महिलाओं की स्थिति के आधार पर उस जगह के प्रति नजरिया बनता है. रांची मेरे लिए एक नया शहर रहा है. मैंने पहली बार महिलाओं को इतनी बड़ी संख्या में सब्जी बेचते या ठेलों पर काम करते देखा. ऐसा इसलिए भी कि कभी भी आदिवासी क्षेत्रों में नहीं रही हूं. हालांकि अपने गांव और क्षेत्र (उत्तराखंड) में खेतों में या जंगलों में काम करती महिलाओं को देखा है लेकिन औरत का बाजार में बैठना सामान्यत: अच्छा नहीं माना जाता है.

जब भी काम में महिलाओं की भागीदारी की बात होती है तो बड़े-बड़े पदों पर बैठी महिलाओं की छवि दिमाग में कौंधती है. लेकिन छोटे-छोटे और जरूरी कामों में लगी इन अनाम महिलाओं के बारे में शायद ही कभी सोचा जाता है. बाजार में चलते हुए इसी संघर्ष की झलक मिलती है.


हमें बड़े-बड़े संघर्ष दिखते हैं लेकिन छोटे छोटे स्तर पर चलने वाले संघर्ष का चेहरा कोई देखना-समझना नहीं चाहता. बाजार में निकलने पर बहुत सी आदिवसी महिलाएं दिख जाती हैं पीठ पर बच्चा बांधे हुए और बेहद ही बेफिक्री से काम पर निकलते हुए. कोई ठेले पर सब्जी बेचती हैं तो कोई कोई छोटी-बड़ी दुकानों में काम करती हैं.

ये बिल्कुल जरूरी नहीं है कि महिलाएं किसी बड़ी सी कंपनी में काम करें या ऑफिसर बनें और मंत्री पदों को संभालें. इसके लिए जरूरी ये है कि हर स्तर पर उनके भीतर एक सजगता हो अपने लिए अपने स्थान को बनाए रखने के लिए जो इन महिलाओं में दिखती है.

इनकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि अगर आप इनके पास चले जाइये तो लगेगा ही नहीं कि आप कुछ खरीदने आएं हैं. यहां खरीदने और बेचने वाले का रिश्ता होता है बल्कि लगता है कि गांव की ही किसी चाची-मौसी से ही बात हो रही है.

हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनको बंद ऑफिस में काम करने वाली महिलाएं तो पसंद आती हैं और उनको सम्मान की नजर से देखा जाता है. लेकिन जब कोई महिला फुटपाथ पर सब्जी या इस तरह की चीजें बेचती हैं या कोई ऐसी कोई मजदूरी करती हैं तो उनको एक तरह से बेचारगी की नजर से देखा जाता है या कई बार तिरस्कार की नजर से भी.

जिन मध्यवर्गीय महिलाओं को चुपचाप से घर में बैठे रहना सम्मान जनक लगता है. उन से कहीं अधिक सम्मान की हकदार हैं ये कामगर महिलाएं और ये समाज.

हां, थोड़ा चिंताजनक बात ये है कि इनेमें कई ऐसी महिलाएं भी होती हैं जो उम्र की ढलान पर हैं लेकिन इस तरह से तो बुजुर्ग पुरुष भी काम करते हुए देखे जा सकते हैं इसे एकाकी नजरिये से नहीं देखा जा सकता है फिर तो ये चिंता दोनों संदर्भों में उभरती है.

चिंता तो इस समाज की अन्य स्तरों पर भी अभरती है. कुछ दिन पहले जब झारखंड के एक आदिवासी गांव में जाना हुआ था तो देखा यहां अभी भी प्राकृतिक जीवन बचा हुआ है. लेकिन मालूम हुआ कि लगभग 11 कि.मी. की दूरी पर उड़ीसा बॉर्डर है जहां खनन के कारण सारी प्राकृतिक संपदा खत्म हो गई है. भीतर से एक अजीब बेचैनी महसूस हो रही थी। इतना खूबसूरत जीवन कोई कैसे उजाड़ सकता है क्या अधिकार है किसी भी सरकार या कंपनियों को ऐसा करने का.

जिस गांव में महिलाओं और पुरुषों को सामूहिक नृत्य करते हुए देखा था क्या वहां सामूहिक विलाप की स्थिति नहीं आने वाली है. क्या इन महिलाओं को बाहर के समाज में उसी तरह की आजादी और खुलापन मिल पाएगा या सब कुछ खत्म हो जाएगा. नहीं पता ये संघर्षशील महिलाएं कितना बचा पाएंगी अपना अस्तित्व अपने पूरे समाज सहित.

एक समाज जहां महिलाओं के लिए भी स्पेस है क्या वहा सब कुछ खत्म हो जाएगा एक बड़ा सवाल और एक बड़ी चिंता है. लेकिन इन महिलाओं के चेहरों और जिजीविषा को दखते हुए एक उम्मीद तो उभरती है कि इनका संघर्ष हमेशा जारी रहेगा अपने जीवन और समाज को बचाने के लिए.