स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है- सीमोन द बोउवार का यह कथन वास्तव में सच के बहुत करीब है। स्त्री बनायी जाती है और यह प्रक्रिया दृश्य-अदृश्य रूप से हमेशा चलती रहती है। एक ऐसी प्रक्रिया जो स्वाभाविक सी लगती है। परिधान रोजमर्रा की जरूरतों का एक हिस्सा है। एक ऐसीजरूरत जिसके संबंध में कोई खास स्वस्थ बहस नहीं की जाती है। कपड़ों के आधार पर भी स्त्री पुरुषों को बांटा गया है। जरा सा भी गौर किया जाये तो महिलाओं और पुरुषों के परिधानों का एक स्पष्ट अन्तर देखा जा सकता है।
एक बच्ची जब पैदा होती है तब से लेकर उसे क्या पहनाना शुरू किया जाता है फ्रॉक ना। एक झालर वाली शानदार फ्रॉक। जबकि लड़के के कपड़ों में एक सादा सा परिधान होता है। वो क्या देखती है एक मोहक और चमचमाते परिधान को।और वह उसी तरह की चीजों से जुड़ती चली जाती है। जबकि लड़के के पास कपड़ों के नाम पर चयन की बहुत ज्यादा सुविधाएं भी नहीं होती हैऔर उसे परिधानों के प्रति सजग बनाया भी नहीं जाता है।इधर एक लड़की के व्यवहार में धीरे-धीरे परिधानों के प्रति सजगता बढ़ती जाती है।
परिधान की बनावट में अन्तर किया जाये तो कह सकते हैं कि एक मूलभूत अन्तर यह है कि महिलाओं के कपड़े ढीले ढाले य़ा अधिक चुस्त और फैशनेबुल होते हैं। एक बड़ा अन्तर जो है वो यह है कि महिलाओं के कपड़ों से जेब नदारद रहते हैं। क्या कारण है कि जहां एक पुरुष परिधान में जेबों की भरमार होती है कुर्ते से लेकर पैंट और शर्ट में भी वहीं महिलाओं के परिधान में जेब होती भी है तो किसी कोने पर एक सजावट के लिये। यह मात्र परिधानों या जेब का ना होना नहीं है यह समाज में बैठी उस गहरी मानसिकता का प्रतीक है जिसके तहत महिला को अर्थव्यवस्था का हिस्सा भी मानने से इनकार किया जाता है। जाहिर है जेब का होना पैसे होने का प्रतीक है। अर्थव्यवस्था से महिलाओं को हमेशा किनारे रखा गया है। हालांकि इधर तस्वीर कुछ बदली है लेकिन तस्वीर पूरी तरह बदली है यह कहना खुद को बेवकूफ बनाना है।
जीन्स में जेब होती हैं जबकि साड़ी या अन्य पारंपरिक परिधानों में जेब नहीं बनायी जाती है यह आम मानसिकता है महिलाएं चलेंगी तो पर्स या बैग लेकर ही चलेंगी। जबकि जेब न होने की परेशानी हर रोज बाहर लिकलने वाली कोई भी महिला समझ सकती है। हालांकि अकसर बड़ी जेब वाली जींस ढूंढने में भी अक्सर लड़कियों को मशक्कत करनी पड़ती है।जेब होने की सुविधा के चलते ही महिलाएं आजकल जीन्स को तरजीह देती हैं।
बौद्धिक स्त्रियों से भी समाज बडी विरोधाभास पूर्ण अपेक्षाएं रखता है । यदि वे अपने परिधान पर पूरा ध्यान नहीं देती तो लोग उन्हें मर्दाना स्वभाव का कहते हैं और यदि फैशन और मेकअप करती हैं तो लोग कहते हैं कि औरत औरत ही रहती है।–सिमोन
उसे कॉलेज/ऑफिस जाना है और वो फिर से अपने कपड़ो के बक्से से ऐसी ड्रेस निकाल रही है जिसे उसने कल पिछले हफ्ते या दो हफ्तों से नहीं पहना है। यह निर्भर करता है उसके पास कपड़े कितने है। दूसरी ओर लड़का दो ही जोड़ी कपड़ों को हफ्ते दो हफ्ते चला लेता है।मैं अपनी मित्रों से पूछा करती हूं कि वे हमेशा अलग अलग परिधान के लिये इतनी चिन्तित क्यों रहती हैं क्योंकि सिर्फ कपड़ों और मेकअप पर इतना पैसा और समय बर्बाद करने का क्या औचित्य है। तो अक्सर का जवाब होता है फलां सहकर्मी हर रोज नए नए कपड़े पहनती है और यदि मैं नहीं पहनूंगी तो लोग कहेंगे कपड़े नहीं है / गरीब है या कंजूस है इत्यादि इत्यादि। यह मानसिकता है क्या दरअसल । यही ना कि स्त्री को अपने सजाये संवारे रखना बहुत जरूरी है।
आमतौर पर पाश्चात्य परिधानों को अश्लील या संस्कृति को भ्रष्ट करने वाला बताया जाता है और बलात्कार का कारण इनको बताया जाता है और लगातार इसके विरोध में बयान या फरमान जारी होते रहते हैं। जबकि गौर करेंगे तो वर्तमान में पाश्चात्य परिधानों का जो रूप है वह वह वहां की महिलाओं ने वक्त के साथ अपनाया है। 19वीं सदी या उसके बाद तक भी वहां के परिधान भी लम्बे चौड़े एवं काफी हद तक असहज होते थे। गॉन विदद विंड फिल्म की नायिका स्कारलेट जब कपड़े पहनती है तो उसकी परिचारिका उसके कपड़े की बेल्ट को अधिक से अधिक कसने की कोशिश करती है। क्योंकि एक महिला को हमेशा दुबला दिखना चाहिये। या फिर ढीले ढाले परिधान हों। सुविधानुसार कम ही होते हैं।
वहीं मुस्लिम समाज की बात करे तो बुर्का पहने हुए महिलाएं बड़े शहरों में भी बड़े आराम से दिख जाती है। हिंदू समाज की महिलाएं भी घूंघट में दिख जाती हैं।मैंने अपनी एक मित्र से इस बारे में बातचीत की तो उसका स्पष्ट कहना था कि घूंघट बड़ो के प्रति सम्मान दिखाने का एक प्रतीक है जो कहीं से भी गलत नहीं है। मुस्लिम मित्र से बुर्के के औचित्य पर सवाल किया तो असका कहना था स्त्रियों के कुछ अंग ऐसे होते हैं जिसके लिये बुर्का जरूरी है। ये एक युवा पीढ़ीं के विचार हैं।
और परिधानों का बदलना काफी हद तक समाज की मानसिकता का बदलना या बदलने की कोशिश करना होता है। पश्चिम की महिलाएं ना सिर्फ कपडों के मामले में खुली सोच की हैं बल्कि अनकी सोच अन्य मामलों में भी उतनी ही खुली होती है। हालांकि यह हमेशा नहीं होता है।
दरअसल चर्चा करने का मूल उद्द्श्य यहां कपड़ों के आकार प्रकार और बनावट नहीं है। बल्कि महिलाओं एवं पुरुषों के परिधान संबंधी आदतों में पैदा हुई भिन्नता की पड़ताल करना है।अन्य कारणों को जिस कारण एक महिला के लिये परिधान असकी जिंदगी कै महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाते हैं। और अन्य चीजें कही न कहीं गौण हो जाती है। हालांकि इसमें घर सजाना संवारना, सफाई पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देना और खाना बनाने पर विशेष ध्यान देना भी इसमें शामिल हो सकते है लेकिन फिलहाल इसी पर ही बहस केन्द्रित की जा रही है।लम्बे समय से महिला की मानसिकता को एक हर तरह से खांचे में ढालने का जो काम किया गया, परिधान उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। हालांकि परिधानों की यह जकड़बंदी कहीं टूटती नजर आ रही है तो कहीं मजबूत भी हो रही है।
आज यह काम बाजार कर रहा है। मीडिया के माध्यम से एक अलग ही महिला छवि को परोसा जा रहा है। और परिधानों में आये बदलावों को पहचाना जा सकता है। यह एक जकड़बंदी टूटने के बाद उपजी दूसरी जकड़बंदी का दौर है। और चुनौति यह है कि दोनों ही तरह की जकड़बंदी से आजाद होना है । चाहे वो पारंपरिक हो या बाजार द्वारा पैदा की गयी हो।
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