किसी भी जगह महिलाओं की स्थिति के आधार पर उस जगह के प्रति नजरिया बनता है. रांची मेरे लिए एक नया शहर रहा है. मैंने पहली बार महिलाओं को इतनी बड़ी संख्या में सब्जी बेचते या ठेलों पर काम करते देखा. ऐसा इसलिए भी कि कभी भी आदिवासी क्षेत्रों में नहीं रही हूं. हालांकि अपने गांव और क्षेत्र (उत्तराखंड) में खेतों में या जंगलों में काम करती महिलाओं को देखा है लेकिन औरत का बाजार में बैठना सामान्यत: अच्छा नहीं माना जाता है.
जब भी काम में महिलाओं की भागीदारी की बात होती है तो बड़े-बड़े पदों पर बैठी महिलाओं की छवि दिमाग में कौंधती है. लेकिन छोटे-छोटे और जरूरी कामों में लगी इन अनाम महिलाओं के बारे में शायद ही कभी सोचा जाता है. बाजार में चलते हुए इसी संघर्ष की झलक मिलती है.
हमें बड़े-बड़े संघर्ष दिखते हैं लेकिन छोटे छोटे स्तर पर चलने वाले संघर्ष का चेहरा कोई देखना-समझना नहीं चाहता. बाजार में निकलने पर बहुत सी आदिवसी महिलाएं दिख जाती हैं पीठ पर बच्चा बांधे हुए और बेहद ही बेफिक्री से काम पर निकलते हुए. कोई ठेले पर सब्जी बेचती हैं तो कोई कोई छोटी-बड़ी दुकानों में काम करती हैं.
ये बिल्कुल जरूरी नहीं है कि महिलाएं किसी बड़ी सी कंपनी में काम करें या ऑफिसर बनें और मंत्री पदों को संभालें. इसके लिए जरूरी ये है कि हर स्तर पर उनके भीतर एक सजगता हो अपने लिए अपने स्थान को बनाए रखने के लिए जो इन महिलाओं में दिखती है.
इनकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि अगर आप इनके पास चले जाइये तो लगेगा ही नहीं कि आप कुछ खरीदने आएं हैं. यहां खरीदने और बेचने वाले का रिश्ता होता है बल्कि लगता है कि गांव की ही किसी चाची-मौसी से ही बात हो रही है.
हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनको बंद ऑफिस में काम करने वाली महिलाएं तो पसंद आती हैं और उनको सम्मान की नजर से देखा जाता है. लेकिन जब कोई महिला फुटपाथ पर सब्जी या इस तरह की चीजें बेचती हैं या कोई ऐसी कोई मजदूरी करती हैं तो उनको एक तरह से बेचारगी की नजर से देखा जाता है या कई बार तिरस्कार की नजर से भी.
जिन मध्यवर्गीय महिलाओं को चुपचाप से घर में बैठे रहना सम्मान जनक लगता है. उन से कहीं अधिक सम्मान की हकदार हैं ये कामगर महिलाएं और ये समाज.
हां, थोड़ा चिंताजनक बात ये है कि इनेमें कई ऐसी महिलाएं भी होती हैं जो उम्र की ढलान पर हैं लेकिन इस तरह से तो बुजुर्ग पुरुष भी काम करते हुए देखे जा सकते हैं इसे एकाकी नजरिये से नहीं देखा जा सकता है फिर तो ये चिंता दोनों संदर्भों में उभरती है.
चिंता तो इस समाज की अन्य स्तरों पर भी अभरती है. कुछ दिन पहले जब झारखंड के एक आदिवासी गांव में जाना हुआ था तो देखा यहां अभी भी प्राकृतिक जीवन बचा हुआ है. लेकिन मालूम हुआ कि लगभग 11 कि.मी. की दूरी पर उड़ीसा बॉर्डर है जहां खनन के कारण सारी प्राकृतिक संपदा खत्म हो गई है. भीतर से एक अजीब बेचैनी महसूस हो रही थी। इतना खूबसूरत जीवन कोई कैसे उजाड़ सकता है क्या अधिकार है किसी भी सरकार या कंपनियों को ऐसा करने का.
जिस गांव में महिलाओं और पुरुषों को सामूहिक नृत्य करते हुए देखा था क्या वहां सामूहिक विलाप की स्थिति नहीं आने वाली है. क्या इन महिलाओं को बाहर के समाज में उसी तरह की आजादी और खुलापन मिल पाएगा या सब कुछ खत्म हो जाएगा. नहीं पता ये संघर्षशील महिलाएं कितना बचा पाएंगी अपना अस्तित्व अपने पूरे समाज सहित.
एक समाज जहां महिलाओं के लिए भी स्पेस है क्या वहा सब कुछ खत्म हो जाएगा एक बड़ा सवाल और एक बड़ी चिंता है. लेकिन इन महिलाओं के चेहरों और जिजीविषा को दखते हुए एक उम्मीद तो उभरती है कि इनका संघर्ष हमेशा जारी रहेगा अपने जीवन और समाज को बचाने के लिए.
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