Wednesday 30 October 2019

उम्मीद का आख्यान रचती मनुष्यता का पक्ष


अंकिता रासुरी
पुस्तक का नाम- मनुष्यता का पक्ष
लेखक का नाम- विपिन शर्मा अनहद
पृष्ठ संख्या- 151
पुस्तक का मूल्य - 450
प्रकाशन- यश पब्लिकेशन 1/10753 सुभाष पार्क नवीन शहादरा
नई दिल्ली, 110032

दुनिया की कोई भी कला अगर मनुष्यता के पक्ष में ना हो तो उसका होना निरर्थक है। युद्ध, प्रेम, संघर्ष जीवन की इन्हीं भावनाओं के इर्द गिर्द घूमती है विपिन शर्मा की पुस्तक मनुष्यता का पक्ष

मनुष्यता का पक्ष किताब इंसानी  मुद्दों पर बात करती है और समस्याओं के खिलाफ एक लेखकीय ताकत को अभिव्यक्त करती है। इस चिंता में वो तमाम लोग शामिल हैं जो समाज में किसी भी तरह से उपेक्षित किए जाते रहे हैं। वैसे भी वर्तमान दौर में पूरी दुनिया में अल्पसंख्यक को अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है। दुनिया भर में अतिरेकी विचारधारा की राजनीति गरमा रही है। स्त्रियों के तो हमेशा की ही तरह अपने संघर्ष हैं। ऐसे दौर में लेखन की भी अपनी जिम्मेदारी होती ही है। असल मायनों में लेखक उसी को माना जाएगा जो ऐसे में आमजन के पक्ष में खड़ा हो।

मनुष्यता के संकट के बीच कविता में अनहद ने भवानी प्रसाद मिश्र, लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, विनोद कुमार शुक्ल की कविताओं के जरिए लेखक और उनकी समाज के प्रति जिम्मेदारी को समझने की कोशिश की है तथा इंसानी हक के लिए रचनाकारों के संघर्ष को समझाया है।

इसके अलावा  सरहद के पार रचना संसार में दुनिया में मौजूद बेहतरीन लेखकों पाब्लो नेरूदा, ग्राबिएल गार्सिया मार्केंज, विस्सावा शिंम्बोर्स्का, गुंटर ग्रास, लैजलो क्रैसना होर्केई, खालिद हुसैनी, अहमद फराज और  परवीन शाकिर को लिया है।

समावेश में नृत्य की दुनिया से अमेरिकी नृत्यांगना इजाडोरा डंकन पर लिखा है जो कि अपनी अलग ही नृत्य शैली के लिए जानी जाती हैं। इसके अलावा इस खंड में अमृता शेरगिल की चित्रकारी और विभाजन पर आधारित फिल्म क्या दिल्ली क्या लाहौर पर लिखा है।इस तरह से पुस्तक में बहुत सी कला विधाओं को शामिल करने की कोशिश की गई है।

पूरे साहित्य की बात की जाए तो कविताओं की एक अलग दुनिया होती है एक लाइन में भी किसी भी बड़े से बड़े मुद्दे को समेटा जा सकता है।अनहद भवानी प्रसाद मिश्र की कविताओं को युद्ध और शांति के खिलाफ उनका मोर्चा मानते हैं और इनकी कविताओं को फैद नाजिम हिकमत, गुंटर ग्रास, अहदम फैज और नेरुदा की कविताओं से जोड़कर देखते हैं। जो तमाम बर्बरताओं के खिलाफ रही है।

लीलाधर जगूड़ी की कविताओं में लेखक बाजारवाद और हिंसा के प्रति चिंताओं को देखते हैं। इसके अलावा लीलाधर जगूड़ी को सस्ती लोकप्रियता से दूर एक गंभीर कवि के रूप में देखा गया है। तो वहीं राजेश जोशी की कविताएं लेखक को उम्मीदों से भरी नजर आती है और उनकी कविताओं में स्वपनदर्शी दृष्टकोण और उम्मीदों से भरा हुआ पाते हैं। जिनमें समाज की तमाम चिंताओं के साथ, इसी समाज में उम्मीद भी नजर आती हैं।

विनोद कुमार शुक्ल को सत्ता केंद्रों से दूरी बनाए रखने वाले कवि के रूप में देखते हैं। इनकी चिंता में गरीब और आम आदमी बना रहता है। पुस्तक में शुक्ल की सब कुछ बचा रहेगा कविता संग्रह से कविताएं ली गई हैं। लेखक ने इनकी कविताओं को निम्न मध्यमवर्गीय लोगों के कष्टों का कोलाज कहा है। लेखक ने वीरेन डंगवाल की कविताओं में पाया कि वे बहुत बड़ी बड़ी चीजों पर लिखने के बजाय छोटी-छोटी चीजों पर बड़ी बात कह जाते हैं जैसे पोदीना, नीबूं, खपरैल आदि। हाशिमपुरा, मेरठ, मुजफ्फरनगर, दादरी जैसी सांप्रदायिक घटनाओं पर भी लिखते रहे हैं।

इसी खंड में लेखक ने भीष्म साहनी को भी शामिल किया है। भीष्म साहनी के उपन्यास और कविताओं पर बात की है।  भारत विभाजन दुनिया की सबसे बड़ी मानव त्रासदियों में से एक रही है। ऐसे में अनहद भीष्म साहनी को याद करते हैं। इनका अधिकांश लेखन भारत विभाजन की त्रासदियों पर रहा है।

सरहद के पार रचना संसार में अनहद ने पाब्लो नेरूदा, गाब्रिएल  गार्सिया मार्केज, विस्वावा शिंबोर्स्का, गुंटर ग्रास, लैजना क्रैसना होर्केई, खालिद हुसैनी, अहमद, फराज और परवीन शाकिर को लिया है।

पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से लेखक ने दो खास शायर परवीन शाकिर और अहमद फराज को लिया है। फराज एकनिष्ठ प्रेम की बात करते हैं। इनके लेखन में प्रेम का विछोह और दर्द भी शामिल है। इन्होंने फौजी शासन के खिलाफ लिखा तो इन्हें निर्वासन भी भोगना पड़ा। लेखक कहते हैं कि फराज रूमानियत के कवि से धीरे-धीरे प्रतिरोध के कवि के रूप में तब्दील हो जाते हैं।
 
वहीं परवीन शाकिर को भी प्रेम में विछोह की कवयित्री के तौर पर जानी जाती हैं। लेखक ने इनके लेखन को प्रेम में डूबी सत्री का रोजनामचना माना है। पड़ोसी मुल्क के इन शायरों को लेना काफी अहम माना जा सकता है ऐसे समय में जब पाकिस्तान का लगातार विरोध किया जा रहा है और उनके कलाकारों का भी। और ये कलाकार तो अक्सर अपने मुल्क में भी विरोध का शिकार होते रहे हैं।

पाब्लो नेरुदा दुनिया में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले कवियों में से हैं। वे एक साथ प्रेम के कवि और एक क्रांतिकारी के तौर पर जाने जाते हैं। बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत कविता संग्रह काफी प्रसिद्ध है। नेरूदा चिली में जनता के कवि के रूप में जाने जात रहे हैं। पुस्तक में लेखक ने ना सिर्फ नेरुदा की कविताओं पर बात की है बल्कि उनके क्रांतिकारी जीवन संघर्षों का भी जिक्र किया है। नेरुदा की मौत पर भी लोगों द्वारा सवाल उठाए जाते रहे और उनकी मौत को लेकर सरकार शक के घेरे में बनी रही।

ग्राबिएल गार्सिया मार्केज ने एकांत के सौ वर्ष जैसी वैश्विक स्तरीय कृति लिखी।  लेखक को जादुई यथार्थवादी लेखक कहा जाता है। जो लैटिन अमेरिकी जीवन मान्यताओं और हकीकतों को उसी रूप में देखते हैं जैसा कि वे हैं या वहाँ के लोग मानते हैं। मार्केज़ के रचना संसार पर उनकी दादी के किस्से कहानियों का असर है। लेखक मार्केज की तुलना मुक्तिबोध कबीर और विजयदान देथा से करते हैं।
 
नोबल विजेता विस्सावा शिंबोर्स्का को लेखक प्रेम और प्रतिरोध की कवयित्री के रूप में देखते हैं। लेखक के मुताबिक विस्सावा राजनैतिक लेखन तो करती हैं लेकिन थोड़ा नर्म रुख लिए हुए। जैसा कि उन पर आरोप लगाया जाता है वे गैर-राजनैतिक लेखन करती हैं यह गलत है। लेखक उनके स्वभाव के बारे में कहते हैं कि वो एकांतप्रिय भले ही हैं लेकिन लेखन में बहुत मुखर हैं।

लेख कहतै हैं कि गुंटर ग्रास एक प्रतिरोधी लेखक हैं समझौतावादी वे  कभी नहीं रहे। उन्होंने नाजीवाद–फासीवाद जैसा प्रवतियों का हमेशा विरोध किया। द टिन ड्रम गुंटर ग्रास की नाजीवाद के खिलाफ किताब है। उन्हें ब्लैक कॉमेडी का रचनाकार माना जाता है। अनहद गुंटर ग्रास की रचनाओं के साथ-साथ उनके जीवन अनुभवों को भी बताते हैं।

हंगरी के लैजलो क्रैसना होर्केई 2015 के  मैन बुकर पुरस्कार विजेता लेखक हैं। यह पुरस्कार उन्हें सेटेटैंगो (1985) उपन्यास के लिए मिला। उनका लेखक बनने का कोई शौक या सपना नहीं था। एक अनजान व्यक्ति से हुई मुलाकात उन्हें लिखने के लिए विवश कर देती है। इस घटना से लेखक बनने की प्रक्रिया को भी समझा जा सकता है।

दुनिया के अलग-अलग हिस्सों बर्लिन, न्यूयॉर्क जापान, चीन में रहने के बाद भी लेखक अपने देश के दुख, तकलीफों से जुड़े नजर आते हैं। हंगरी ने दोनों विश्व युद्धों में बहुत नुकसान झेला है। लगातार गरीबी झेलता रहा और सपने देखता रहा। अनहद कहते हैं कि लैजलो को हंगरी की परिस्थितियों ने लेखक बनाया।

अफगानिस्तान से लेखक ने खालिद हुसैनी के उपन्यास काइट नगर को लिया है जो अफगानिस्तान के बद्तर होते हालातों की दास्तान है। काबुल शहर  में जन्मे खालिद हुसैनी 1980 में अमेरिका चले गए थे। तालिबानी कब्जे से पहले और बाद वाले अफगानिस्तान की जिंदगी इसमें कैद है। अनहद इस पुस्तक को आमिर और हसन की दोस्ती को देखते हैं जो उनके अब्बुओं के माध्यम से होती है। हसन आखिर में लेखक बन जाता है। पश्तून का हजारा लोगों पर अत्याचार, रूसी सेनाओं के कब्जे के बाद भी बुरी स्थिति, स्त्री को टारगेट करने की मानसिकता। आसिफ उपन्यास के अंत में  तालिबानी बन जाता है जो बचपन में हसन और आमिर को परेशान करता था। आगा साहब और आमिर इलीट जीवन को छोड़कर अमेरिका में मामूली जीवन जीना। आमिर का अफगानिस्तान वापस आना हसन के बेट सोहराब को लेने के लिए, और बद्तर हालातों से सामना जो कि एक बड़ा परिवर्तन था अफगानिस्तान के जीवन में। अनहद लेखक की  की तारीफ करते हैं इस उपन्यास के लिए लेकिन हुसैनी के अमेरिका के प्रति नर्म रुख पर भी सवाल उठाते हैं जबकि दुनिया में आतंकवाद को कायम करने में अमेरिका अपना खेल जारी रखता है। वे अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकवाद को पाकिस्तान और अमेरिका द्वारा प्रयोजित बताते हैं और तालिबानी आतंकवाद को इंसानियत पर संकट।

समावेश खंड में इजाडोरा डंकन, अमृता शेरगिल औऱ क्या दिल्ली क्या लाहौर पर नजर लिखा गया है।एक संघर्षशील, अद्भुत नृत्यांगना और उन्मुक्त प्रेम करने वाली स्त्री इजाडोरा की जिंदगी का जिक्र अगर इस पुस्तक में ना होता तो कला की दुनिया पर चर्चा कुछ अधूरी रह जाती। इजाडोरा ने अपने जीवन अनुभवों को अपनी आत्मकथा माई लाइफ में लिखा है। इजाडोरा ने समाज के बने बनाए रास्तों को नहीं चुना। उसने अपनी अलग नृत्य शैली विकसित की। बैले नृत्य के दौर में उसने अपना एक नया अंदाज गढ़ा। प्रेम के मामले में भी इजाडोरा परंपरागत प्रेम को नकारकर अलग रास्ता बनाया। 

पुरुष कलाकारों का संघर्ष तो बहुत दिखता है साहित्य में लेकिन एक महिला कलाकार के अपने अलग संगर्ष होते हैं अनहद इस लेख में इसको बेहद डूबकर लिखते हैं।
महिला कलाकार में दूसरा नाम अमृता शेरगिल का है जिसे लेखक ने अपनी पुस्तक में लिया है। भारतीय चित्रकला में अमृता शेरगिल एक ऐसा नाम है जिसके अपने अलग ही मायने हैं, खासकर महिला चित्रकार के तौर पर। शेरगिल के पिता एक सिक्ख थे जबकि माँ हंगरी की थी। अमृता ने हंगरी के साथ-साथ भारत में जीवन का कुछ समय बिताया। कुछ समय पेरिस में भी रही जहां  चित्रकला का प्रशिक्षण लिया। अमृता की चित्रकला की ताकत भारतीय चित्रकला है। अमृता ने पहाड़ी और ग्रामीण स्त्रियों के जीवन के जीवन को प्रमुखता से अपनी कूचियों से रंगा है। अमृता की बेहद कम उम्र में मौत हो गई।

विभाजन का असर अभी भी भारत-पाकिस्तान दोनों मुल्कों के रिश्तों पर देखा जा सकता है। दोनों देश स्थायी तौर पर एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। क्या दिल्ली क्या लाहौर फिल्म इसी को बेहद संजीदा तरीके से पर्दे पर दिखाती है। अनहद इस फिल्म को गर्म हवा और तमस जैसी संजीदा फिल्मों की कड़ी के तौर पर देखते हैं और इसे राजनैतिक संदेश वाली फिल्म के तौर पर देखते हैं। फिल्म का अधिकाश हिस्सा दो फौजियों के संवाद पर टिका हुआ है। राजनैतिक संदेश के मायने में लेखक इस फिल्म को भारत विभाजन पर बनी अन्य फिल्मों से अलग मानते हैं। फिल्म में जिन्ना, गांधी का जिक्र का भी जिक्र है और विभाजन का लोगों के जीवन पर पड़ने वाला स्थाई असर। भारत से पाकिस्तान गए लोगों को मुजाहिर कहा जाता है। लेखक दोनों चरित्रों में नॉस्टेलेजिया का भाव पाते हैं। रहमत अली दिल्ली को और समर्थ शास्त्री लाहौर को याद करते हैं बातचीत में। इस फिल्म की तुलना विश्व प्रसिद्ध फिल्म शिंडलर्स लिस्ट और मैन्स लैंड से करते हैं लेखक। साथ ही पिंजर, ट्रेन टू पाकिस्तान, खामोश पानी जैसी फिल्मों से भी इसकी तुलना करते हैं।


यह आकाशपाणी है

अंकिता रासुरी

पिताजी गांव के जूनियर हाईस्कूल में शिक्षक थे। मैंने दो या ढाई साल की उम्र से उनके साथ स्कूल जाना शुरू कर दिया था। तब गावों में 5 साल की उम्र में बच्चे स्कूल जाना शुरू करते थे। हालाँकि मैं स्कूल खुशी-खुशी जाया करती। स्कूल जाने का एक लोभ यह भी था कि पिता के सहकर्मी शिक्षक मेरे लिए टॉफियाँ या बिस्किट लाया करते। मैं स्कूल में सब बच्चों की चहेती थी। हालाँकि ये भी होता कि पिताजी जिन बच्चों को डांटते-मारते वे बच्चे मुझे मार कर अपना बदला पूरा कर लेते थे।

पिताजी के सहकर्मी शिक्षक दूसरे गांव के रहने वाले थे। उनकी बेटी मेरी ही उम्र की थी। वो भी मेरी ही तरह अपने पिता के साथ स्कूल आती थी। अक्सर ये होता कि मेरे पिता मुझ से कहा करते कि  जगदम्बा पढ़ने में बहुत तेज है। वही बात उसके पिता मेरे बारे में कहा करते। मैंने जब उससे ये बात कही तो उसने कहा कि ठीक ठीक यही बात उसके पिता ने भी कही है। हम दोनों अपनी समझदारी पर कुछ देर खूब हंसते कि हमने बड़ों की पोल खोल दी।

उन्हीं दिनों गांव के ही बेसिक स्कूल के एक गुरूजी जी थे। वो मेरठ के रहने वाले थे। तब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा हुआ करता था। उनके दो बेटे थे। वो मुझे साथ में खेलने के लिए बुलाती लेकिन बाहरी होने की वजह से मैं उनसे बहुत शर्माया करती थी। शर्म इतनी कि कभी उनके चेहरे भी ठीक से नहीं देखे। लेकिन मन ही मन बहुत आकर्षित थी उनसे। कई बार ये भी ख्याल आता कि क्या उनमें से कोई मेरा दूल्हा बनेगा। राज्य अलग हो गए इसके बाद भी परिवार का उन गुरूजी से संपर्क बना हुआ है। घर में जब-जब शादियाँ हुईं तो वो दोनों भाई घर आए। इस बार वो शरमा रहे थे और मैं उनके चेहरे गौर से देख रही थी कि कहीं कोई आकर्षण बचा हुआ है या नहीं।

फिर कुछेक साल बाद बेसिक स्कूल में नाम तो लिखवा लिया गया लेकिन तब भी कई बार पिताजी वाले स्कूल जाया करती। फिर पांचवीं पास करके कक्षा 6 में इसी स्कूल में आई पढ़ने आई। तब तक पिताजी दूसरे स्कूल जा चुके थे। स्कूल बिल्कुल जर्जर स्थिति में था। बारिश के दिनों में डर लगता था कहीं टूट ना जाए। स्कूल थोड़ा-थोड़ा टूटता रहा या दरार पड़ती लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसे दुर्घटना कहा जाए। हालाँकि दूब घास से भरा हुआ स्कूल का आंगन बहुत खूबसूरत लगता। पहाड़ के दूर के छोर पर स्कूल में बैठी एक लड़की को लगता था की देश-दुनिया तो हमारे बारे में कुछ जानती ही नहीं है। भंगैड़ी नाम था उसका।

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या 17 साल की रही होगी, आठवीं कक्षा में थी। भंगैड़ी गढ़वाली में गौरेया को बोलते हैं। जिन बेटियों का नाम मां-बाप भंगैड़ी रख देते थे उनके स्कूल के नाम रखने की जिम्मेदारी अक्सर शिक्षकों पर आ पड़ती थी। भंगैड़ी नाम शिक्षकों को स्कूली दस्तावेज के लायक शायद कभी नहीं लगा। शिक्षक का रखा हुआ नाम या तो स्कूली दस्तावेज तक सीमित रहता अधिक से अधिक शादी के कार्ड के लिए। खैर, अचानक उसने कहा अगर बारिश में ये स्कूल टूट जाता और हम सब दब कर मर जाते कितना अच्छा होता कम से कम अखबार में हमारी फोटो तो छपती। उस वक्त उसको मरना बहुत छोटी बात लगी होगी अखबार में फोटो छपने के मुकाबले। उसे लगा होगा सामान्य जीवन की खबरें तो बड़े लोगों की छपती हैं हम जैसों को मरना खपना होगा इसकी खातिर। उसी साल या शायद एक साल बाद उसकी शादी हो गई।

कुछ समय बाद उसको फिर देखा एक नए स्वरूप में। शरीर पर अतिरिक्त कपड़े, सिर के चारों और टोपी और ऊपर से साफा बाँधे हुए, कमर में एक दरांती खोसे, सिर पर तसला रखे हुए गधेरे जा रही थी। इस वेशभूषा से समझ में आ जाता था कि अमुक स्त्री सिलि (प्रसूता) है। जिस समय में महिलाओं को सबसे अधिक जरूरत होती है साफ सफाई की, आराम की, उस समय उनको अस्पृश्य बना दिया जाता है। उसे ओबरे (घर के निचले तल्ले) में रखा जाता है। अगर किसी ने स्पर्श भी किया तो नहाना पड़ता। 21 दिन तक प्रसूता से इसी तरह का व्यवहार किया जाता है। इस जकड़न में अब भले ही थोड़ी-बहुत ढील हुई है लेकिन स्थितियाँ बहुत नहीं बदली हैं। इस बार गांव गई तो रिश्ते की एक भाभी सिलि थी। वो ओबरे में ही थी, जमीन पर बिस्तर बिछाए हुए। मैंने पूछा- कपड़े तो उसी गधेरे के पानी में धोने होते होगें अब भीउन्होंने कहा कि हाँ और कहाँ धोएं। जिस धारे में सारे लोग कपड़े धोते हैं सिलि वहाँ न धोकर गधेरे के बगल के खेत से आने वाले पानी में धोती हैं। पानी हालाँकि साफ ही होता है लेकिन गधेरे की गंदगी वाली जगह में साफ और गंदे पानी में धोने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है।

पीरियड पर इन दिनों खूब चर्चा हो रही है उसी तरह प्रसूति के दौरान होने वाली समस्याओं पर भी बातचीत होनी चाहिए। बच्चे पैदा करते हुए भी महिलाओं को बहुत सी दिक्कतों और रूढियों को सामना करना पड़ता है। बच्चे की पैदाइश के इक्कीस दिन तक तो एक तरह से बहिष्कृत होती हैं। ऐसा नहीं है कि गांवों में सब बुरा ही है। इन मेहनतकश स्त्रियों को बच्चे जन्मते वक्त उतनी दिक्कत नहीं होती है, जितनी शहरी स्त्रियों को होती है। काम की वजह शरीर सधा हुआ रहता है आपरेशन की नौबत बहुत ही कम आती है। गांव में एक दोस्त थी जो रिश्ते में बुआ लगती थी। सब उसको बणी कहते। बाद में पता चला कि जब उसकी माँ घास लाने गई थी बण (जंगल) में ही उसका जन्म हुआ। असल नाम उसका कमला था। हालाँकि वह बहुत तकलीफदेह रहा होगा उसके बावजूद सबको वह सामान्य ही लगता है।

देखने की जो शहरी दृष्टि है। वो कई बार सामान्य चीजों को भयावह तरीके से पेश करती है और भयावह चीजें उसके लिए बहुत सामान्य होती हैं। कई स्तर पर बंटा हुआ समाज जैसे जाति, धर्म, जेंडर, शहरी और गांव के स्तर पर भी उसी तरह से बंटा हुआ है। गांवों पर जीवित समाज में गांवों को ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। बेवकूफ के संदर्भ में प्रयोग होना वाला शब्द गंवार गांव विरोधी समाज की मानसिकता को ही दर्शाता है।

गांव के स्कूल में पढ़ाई का स्तर काफी बुरा था जैसा कि देश के अधिकांश सरकारी स्कूलों का है। एक-दो शिक्षकों से उम्मीद भी कैसे की जाए कि वो सारा आफिशियल और पढ़ाई वाला काम अच्छे संभाल लेंगे। एक दो शिक्षक ऐसे मिले मुझे बहुत कोशिश करते कि सब कुछ अच्छे से पढ़ा ही लें। बेसिक स्कूल में एक बहुत अच्छे शिक्षक आए उनका नाम सूर्यप्रकाश था। सूर्यप्रकाश गुरूजी बच्चों पर बहुत मेहनत करते। घर-घर जाकर लोगों से उनके बच्चों की पढ़ाई पर बात करते। जो बच्चा स्कूल नहीं जाता या कम जाता उसे व्यक्तिगत तौर पर समझाते स्कूल जाने के लिए। बहुत कोशिश करते लेकिन अपनी कोशिश में वो अकेले होते। एक मैडन भी थी लेकिन अक्सर छुट्टी पर रहतीं।

प्राइमरी पास करने के बाद भी कइयों को गिनती नहीं आती थी किसी को पहाड़ा नहीं। वर्णमाला, जोड़-घटाव, गुणा-भाग नहीं आता था। अगर किसी को इतना आ जाता तो वो होशियार समझा जाता है। इन सब के बावजूद स्कूल जाना बहुत खुशी भरा होता था। हमारे स्कूल के बगल में कोई बड़ा प्राईवेट स्कूल नहीं था जिससे हम हीन भावना महसूस करते। जैसा कि मैंने अक्सर शहरों में देखा है। हमारे लिए जो भी था वही स्कूल था। बच्चे भी शहरी बच्चों की तरह सिर्फ झोला उठाकर स्कूल नहीं जाते थे। स्कूल जाने से पहले सुबह-सुबह हमें कुछ काम निबटाने होते थे। जैसे गायों या बैलो को चरने के लिए जंगल भेजना, पानी लाना, आस-पास के खेतों से ही थोड़ा बहुत घास लाना। फसलों के समय में खासकर असूज के महीने धान कटाई के वक्त, और बरसात में धान रोपाई के वक्त कई-कई दिन स्कूल नहीं जाना हो पाता, देर हो जाती या कई बार जल्दी छुट्टी लेनी पड़ती। छोटे भाई बहन की देखभाल के घर पर रहना। गुरुजी सब कुछ समझते कई बार कुछ खास नहीं कहते लेकिन कई बार डांटते या मारते भी पढ़ना नहीं है तो घर बैठो।

खैर मुझे कहानियाँ बहुत पसंद थी बहुत जल्द ही हिंदी पढ़नी सीख ली थी पिताजी के साथ स्कूल जाते हुए ही। माँ भी कुछ-कुछ कहानियाँ सुनाया करतीं। अन्य लोगों के मुकाबले माँ अपवाद स्वरूप कुछ पढ़ी लिखी थीं और कुछ अपने बचपन में बढ़ी हुई और कुछ खुद से गढ़ी हुई कहानियां-कविताएं भी सुनाती। सुबह जगाने के लिए उठो लाल अब आँखें खोलो, पानी लाई हूँ मुँह धोलो सुनाती। दूध पिलाने के लिए अक्सर सुनातीं घिंडुड़ी की माँ और घिंडुड़ी न चा दूध पे। घिंडुड़ी भी गौरैया को ही बोलते हैं। माँ पौड़ी क्षेत्र से आती हैं तो वहाँ घिंडुड़ी कहा जाता है। गढ़वाली भी क्षेत्रवार बहुत कुछ बदल जाती है शब्दों और उच्चारण समेत।

कुछ दिनों पहले ही जापानी शिक्षाविद तेत्सुको कुरोयानागी की किताब तोत्तो चान पढ़ रही थी। हालाँकि इस किताब के एक हिस्से को मैं बचपन में पाठ्यक्रम में पढ़ चुकी थी। लेकिन रेल के डिब्बे वाले स्कूल के अलावा कुछ याद नहीं था। तोत्तो का स्कूली जीवन और उसकी शरारतें पढ़ते हुए अपने गांव के स्कूली दिन याद आ गए। अक्सर यह होता था कि जिन महीनों में हिसर किनगोड़, घिंघ्यारा, पंय्या (पहाड़ी फलों के नाम) होता किसी न किसी बहाने स्कूल से निकल जाते। उन दिनों स्कूल में ना शौचालय था ना पानी की व्यवस्था तो बच्चों के लिए यह सकारात्मक पक्ष होता। पानी के लिए बाल्टी रखी तो होती लेकिन उसे भी बच्चे ही भर कर लाते। इतने बच्चों में आखिर वो पानी कितना चल पाता। कभी पानी के बहाने तो कभी पेशाब के बहाने जाते और जल्दी सड़क के मोड़ के पार होते ही सुकून की सांस लेते अब गुरूजी नहीं देखने वाले। लेकिन बरसात के दिनों में काफी दिक्कत होती, स्कूल जाने में भी रास्ते गंदे हो जाते, स्कूल पहुंच भी जाओ तो पेशाब स्कूल के पीछे की बची गली में जाना पड़ता। जो अक्सर गंदी भी रहती थी। खैर सामान्य ही लगता था सब कुछ तब भी।

शिक्षक इस बात को जानते थे और ख्याल रखते कि एक साथ ज्यादा बच्चे न जा पाएं। हम लोग कैसी-कैसी तो मिन्नतें करते कि, शिक्षकों को कहना ही पड़ता जाओ तुम लेकिन जल्दी आना। लेकिन जहाँ दो तीन बच्चे भी एक साथ चले गए सारी नसीहतें हिदायतें भूलकर झाड़ियों में घुस जाते, पेड़ों पर चढ जाते, फल खाने के लिए या फिर कबड्डी, खो-खो, सतखान, जैसे कोई न कोई खेल खेलना शुरू कर देते।

इंटरवल के समय तो अक्सर यही होता कि बच्चे जाते तो वापस स्कूल आना ही नहीं चाहते। फिर सड़क के उसी मोड़ के दूसरी ओर ओझल हो जाते जैसे कि वो कोई जादुई दुनिया हो वहाँ शिक्षक प्रवेश ही ना कर सकता हो। हम सभी आपस में एक दूसरे को हिदायतें देते कि कोई मोड़ के उस पर नहीं जाएगा नहीं तो गुरूजी इंटरवल खत्म होने की घंटी बजवाएंगे। हमें ऐसा लगता कि हम जाएंगे तभी घंटी बजेगी। लेकिन गुरूजी किसी न किसी बच्चे को पकड़ ही लेते या खुद ही घंटी बजा लेते। हालाँकि कुछ बच्चे घंटी सुनते ही चले जाते लेकिन कुछ तब भी कोई न कोई बहाना बना लेते जाने का। कई बार गुरुजी उस मोड़ को पार करके खुद ही बच्चों को खदेड़ कर ले जाते। और तो और सबसे मजेदार ये होता कि इसी दौरान अगर किसी खेल में कोई टीम हार रही होती तो ये बदला लेने का अच्छा मौका होता और वापस स्कूल की ओर बढ़ जाते।

इंटरवल का मतलब हमारे लिए कभी भी लंच ब्रेक नहीं होता था बल्कि खेलने के लिए होता था। चूंकि स्कूल अपने गांव में ना होकर बगल के गांव में था तो ये भी संभव नहीं होता कि घर जाकर ही कुछ खा लिया जाए, क्योंकि दूर पड़ता। बगल की दुकान से कभी-कभार बिस्किट या पकोड़ियाँ खा लेते बस। लेकिन कभी टिफिन नहीं ले जाते थे जरूरत ही महसूस नहीं होती। सुबह घर से निकलते हुए खाते और फिर स्कूल से लौटकर।
ऐसा नहीं कि बचपन इतना सुकून भरा रहा हो। बस तब हर हाल में खेलने की जिद होती। स्कूल में शिक्षक को गिनती, पहाड़े सुनाने, पाठ, कविता सुनाना, की मार का डर भी होता, तो घर में छोटे भाई बहनों को संभालना, घर और खेती के कामों जैसे घास लाना, पानी लाना, गोरुओं को चराना आदि। घर की और भी बहुत सारी समस्याएं होतीं। लेकिन बच्चे थे कि इन सबके बाद भी समय चुरा चुरा कर खेलने बैठ जाते।

गांव में एक दो बड़े खेत थे जिसे हम लोग अक्सर खेल का मैदान बनाए रखते। इसके लिए हमें गालियों भी खानी पड़ती। लेकिन इसका हम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ता। हमें खेत से भगाया जाता और कुछ देर बाद फिर लौटकर आ जाते बल्कि कई बार खेत वालों को उल्टा चिढ़ाते भी या गाली भी देते। जिनका खेत था उनकी भी अपनी दिक्कतें थीं। हम लोग खेल-खेल कर खेत की ऐसी हालत कर देते कि उसमें हल चलाने फसल उगाने में ज्यादा मेहनत लगती।

पहाड़ों में आर्थिक असमानता बहुत नहीं देखने को मिलती। सबकी स्थिति बुरी ही कही जाएगी लेकिन फिर भी एक दो परिवार ऐसे थे जिनकी हालत बहुत खराब थी। उनकी अपनी दिक्कतें थीं किसी की दादी झगड़ा करती किसी के पिता जी दारू पीकर मारपीट करते। एक कहावत भी है सूर्य अस्त गढ़वाली मस्त”- ये कहावत शराब पीने के संदर्भ में प्रयोग की जाती है। जब छोटी थी मैंने शराब का असर देखा भी है अपने गांव में। हर रोज गाँव में दो-चार लोग कम से कम ऐसे होते ही थे जो शराब पीकर गाली देते। कभी किसी को व्यक्तिगत तौर पर किसी एक को, तो कभी पूरे गांव वालों को संबोधित करते हुए। दूसरे लोग उसे एक तरह से मनोरंजन के रूप में लेते थे। लेकिन दिक्कत और शर्मिंदगी उसके घर के सदस्यों खासकर पत्नी और बच्चों को उठानी पड़ती। पिताजी गांव ही नहीं पूरे इलाके में वे एक बेहतर और जुझारू शिक्षक व इंसान के तौर पर जाने जाते थे और थे भी। लेकिन वे भी खूब शराब पीते थे। घर में माँ को पिताजी की शराब की आदत कारण मैंने डर के साए में जीते हुए देखा। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उन्होंने शराब पीकर किसी बाहरी व्यक्ति को कुछ कहा हो। लेकिन हर बार पीकर घर में झगड़ा और मार-पीट होना तय होता था। माँ के साथ-साथ वो डर मेरे भीतर भी कहीं बैठ गया। पहाड़ों में शराब के खिलाफ महिलाओं ने बहुत आंदोलन किए हैं। हालाँकि लड़ाई-झगड़े का कारण सिर्फ शराब नहीं होती है बल्कि पुरुष प्रधान मानसिकता भी है।

एक बार रसूल हमजातोव की किताब मेरा दागिस्तान पढ़ रही थी उसमें उन्होंने लिखा था कि उनके यहाँ फसलों के बर्बाद होने संबंधी गालियाँ दी जाती हैं। मुझे बहुत अचरज हुआ ऐसी समानता देखकर हमारे यहाँ पर भी तो फसलों, खेतों, गोरुओं (पालतू पशुओं) संबंधी गालियाँ दी जाती हैं। फिर सोचा एक जैसी जीवन परिस्थितियों के कारण बोल-चाल में समानता आनी लाज़िमी है। हम भी जब आपस में गाली देते सबसे प्रिय गाली यही होती कि तुम्हारे घर में भांग जम जाए या तुम्हारी भैंस ढंगार में गिर जाए।

शहरों के बच्चों को देखती हूँ तो लगता है इस तरह का बचपन सुविधामय भले ही है लेकिन बंधन इतने हैं। घर से दो कदम बिना बड़ों की निगरानी के घर से बाहर निकाल ही नहीं पाते। इस तरह के माहौल में जीवन अनुभव बहुत सिमटे हुए होते होंगे। हम लोग थे तो माँ-बाप को खेत-जंगल से फुर्सत की कहाँ होती थी बच्चों को देखते। हम चाहे जो भी करते लेकिन अपने स्तर पर काफी समझदार और आत्मनिर्भर थे ही। दादा-दादी को जो थोड़ी-बहुत फुर्सत होती भी तो वो दौड़ते-भागते बच्चों कम ही नियंत्रित कर पाते।

कुछ दिनों पहले फरहान अख्तर की एक शार्ट फिल्म पॉजिटिवदेखी जिसमें एक व्यक्ति बताता है कि उसे बचपन में कुछ बातों का पूरा यकीन था जैसा वो सोचता है चीजें वैसी ही होंगी। अपने बचपन को याद करती हूँ मेरी भी कुछ कल्पनाएं थीं जो मेरे लिए बेहद वास्तविक थीं। मैं पहाड़ों की चोटियों पर टिके आसमान को ललचाई हुई नजर से देखा करती। अक्सर सोचती जब कभी बड़ी हो जाऊँगी तो वहाँ चोटी पर जाकर आसमान को छूकर देखूंगी कैसा लगता है।

ऐसा ही जुगनुओं के मामले में हुआ करता। बरसात में जब चारों ओर जुगनू चमकते तो मैं बहुत खुश हो जाया करती थी कि तारे घरों और खेतों में उतर आए हैं। हम लोग जुगनुओं को अपने हाथों में पकड़ते। कई बार पकड़ में आते कई बार छूट भी जाते लेकिन एक दिन देखा कि जुगनू कोई तारा नहीं बल्कि पंख वाला कीड़ा है तो बहुत दुख हुआ था।

मेरे बचपन की सबसे शानदार कल्पना आकाशवाणी को लेकर थी। समाचारों या कार्यक्रम के पहले वाला उसका संगीत मुझे बहुत प्रिय था। यह आकाशवाणी हैशब्द को मैं सुनती कि यह यह आकाश पाणी है। इस तरह से मुझे लगता कि आसमान कोई ऐसी जगह है जहाँ पानी ही पानी होता है। ये जो आवाज है उसी दुनिया से आ रही है, कुछ लोग वहाँ बैठकर कुछ न कुछ सुनाते रहते हैं। आसमान की ओर भी देखती लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखता। जब रेडियो ऑन होता तो रेडियो के छेदों से भी अंदर झांकती शायद इसके भीतर वो दुनिया हो जहाँ से लोग बोलते हैं। सिवाय अंधेरे के कुछ नहीं दिखता था। सही शब्द आकाशवाणी पता चलने पर मैं बहुत दुखी हुई थी। आज भी यह शब्द मुझे पसंद नहीं है। मुझे वो बचपन वाला आकाशपाणी शब्द ही पसंद है।

हालाँकि बचपन की ऐसी बहुत सारी कल्पनाएं थीं जिनके टूटने पर दुख हुआ था। ये ये घटनाएं ऐसी हैं जिनसे बहुत टूटने जैसा लगा आज भी लगता है कि काश ये चीजें मेरी कल्पना के मुताबिक होतीं। आकाशपाणी कोई पानी वाली खूबसूरत दुनिया होती, जुगनू सच में तारे ही होते और किसी दिन आसमान को छूकर-कुरेद कर देख पाती कि नीली पट्टी आखिर कैसी है जहाँ धूप बारिश बर्फ समाई है और वक्त वक्त पर काली, स्लेटी या रंगबिरंगी भी हो जाती है।

अब घर जाने पर जीवन का पिछला प्रेम जैसे फिर तीव्रता से याद आता है। मैं छत पर जाती हूँ। छह-सात साल ही तो बीते हैं जब मैं छत पर जाकर बात किया करती। प्रेमी को बताया करती ऐसे खेतों में फसल उगी है, ये जो आवाज आ रही है पानी की, ये खेतों में फसलों के लगाया गया है। उसने शायद उस पर एक अच्छी कविता भी लिखी। फिर उन्हीं दिनों मैंने उसके यहाँ के फूलों-पेड़ों के बारे में पूछकर बुरांश और पलाश को लेकर कुछ लिखा था। लेकिन दुनियाएं, कल्पनाएं टूटती हैं फिर नई बनती हैं, फिर टटूती हैं। गांव जाकर मुझे वो खेतों का पानी उस पर हमारी लंबी बातचीत याद आती है। मुझे लगता है गांव और जंगल हमें अधिक कल्पनाशील बनाने के साथ संघर्षशील भी बनाते हैं। तब मैंने पलाश नहीं देखे थे लेकिन पलाश के फूलों से जोड़ता हुआ प्रेमी साथ था। आज मैं जहाँ हूं, यहाँ खूब पलाश के फूल खिले हैं। मैं बस इन फूलों का ही पीछा कर पाती हूँ अब। कभी लगता है कि प्रेम इस तरह से भी जिंदा रह सकता है। तो कभी लगता है जैसे एक बार फिर मैं इस लाल आग में झुलस जाऊंगी।

कुछ ही सालों में गांव भी खूब बदले हैं। टीवी, फोन बच्चों तक पहुंच गए हैं। लेकिन बच्चों को जहाँ एक खुला आसमान मिलेगा एक समय बाद सब चीजों से ऊबकर खुले आसमान के नीचे ही खेलना पसंद करेगें। तमाम संघर्षों के साथ गाँवों में जीवन और हवा अभी भी बाकी है ही, मैं पहाड़ों के संदर्भ में यह बात ज्यादा यकीन से कह सकती हूँ।

शिक्षक बदलें तरीका



पुस्तक समीक्षा -अंकिता रासुरी

लेखक : बारबियाना स्कूल के छात्र
अनुवादक: सरला मोहनलाल
प्रकाशन वर्ष : 1996
पृष्ठ संख्या-126
मूल्य-125
प्रकाशक- ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्रा. लि. -7 सुभाष चौक लक्ष्मीनगर दिल्ली- 110091

किसी भी समस्या पर कोई अगर सबसे अच्छा लिख सकता है तो वो है खुद पीड़ित व्यक्ति। चाहे वो स्त्री हो, दलित हो या अन्य कोई भी वंचित तबका। दूसरे की तकलीफों को देखकर  लिखना ओर आपबीती लिखना दोनों में एक खास फर्क है।

खैर यहां बात छात्रों की तकलीफों और उनसे जुड़ी समस्याओं बारे में हो रही है। बड़े-बड़े शिक्षाविद और तमाम तरह के अकादमिक जगत के लोग बच्चों के बारे में चाहे जितनी भी नीतियां बनाते आये हों, उनमें बच्चों के प्रति भले ही जितनी भी चिंता जताई गई लेकिन उनको ध्यान में रखते हुए नीतियां कम ही बनाई जाती हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि छात्रों से संबंधित फैसले उनकी मर्जी से  किये जाएं।

अध्यापक के नाम पत्र एक ऐसी किताब है जो बच्चों के दिलों को खोलकर रख देती है। इस किताब को सबसे पहले शिक्षकों  के हाथ में जाना चाहिए और ऐसे शिक्षाविदों के हाथों में भी जो पुराने सिद्धांतों को दोहराए जा रहै हैं। यह पुस्तक इटली के एक छोटे से पहाड़ी गांव बारबियाना के आठ बच्चों ने मिलकर लिखी है। ये उन बच्चों में से हैं जिन्हें हमेशा से स्कूल में अपनी सामाजिक आर्थिक हैसियत के कारण भेदभाव का शिकार होना पड़ा। हैरानी की बात ये है कि पूरी दनिया में पढी जाने वाली इस पुस्तक को लिखने वाले बच्चों की उम्र महज 13 से 15 वर्ष के बीच की है।

इसे भले ही इटली के छात्रों ले लिखा हो लेकिन यह किसी भी देश के किसी भी छात्र की पीड़ा हो सकती है। समान शिक्षा की बात होती है लेकिन कहीं भी ऐसा नहीं होता है। इटली में उस दौर में सारे बच्चों को अनिवार्य सरकारी स्कूल में पढना होता था लेकिन एक ही स्कूल में भी विभेद खोज दिया गया। ऐसा क्या है कि समान स्कूल में पढने के बावजूद गरीब और अमीर बच्चों को एक जैसी शिक्षा नहीं मिलती। ऐसे बच्चे जिन्हें स्कूलों से बाहर जाकर फैक्ट्रियों या खेतों में काम करना पड़ता है, जो अपनी पारिवारिक स्थिति के कारण अमीर बच्चों की बराबरी नहीं कर पाते हैं, उनके शिक्षक अक्सर उन्हें बेवकूफ ठहरा देते हैं क्या वास्तव में ऐसा है। कुछ चीजों को दोहरा देना शिक्षा कैसे हो सकती है। जो अमीर परिवारों से आये बच्चे हमेशा कर लेते हैं क्योंकि यह शिक्षा उन्हीं के अनुसार और उन्हीं लोगों के लिए है।

कितनी जरूरत है इस चीज की शिक्षा पर सबका समान अधिकार हो। एक सभ्य समाज कहलाने के बावजूद ऐसा क्यों है कि हम शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरत को सबके लिए समान रूप से उपलब्ध ना करा पाएं। ये सिर्फ एक देश की कहानी नहीं है बल्कि सभी देशों और समाजों की हकीकत है।

अपने ही देश में अगर देखा जाए शिक्षा के स्तर में असमानता को साफ तौर पर देखा जा सकता है। एक ओर सरकारी विद्यालय है जहां सिर्फ वहीं बच्चे पढते हैं जो महंगी फीस नहीं चुका सकते। जिनके पास संसाधन हैं उनके बच्चे अच्छे से अच्छे स्कूलों में ऐय्याशी करते हैं। दोनों के बीच कैसे प्रतियोगिता कराई जा सकती है। ऐसे में एक निम्न वर्ग की पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाले बच्चे के लिए शिक्षा में समान भागीदारी और महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचने के मौके लगभग नगण्य होते हैं।

अक्सर मिसालें दे दी जाती हैं कि जिन्हें पढना होता है और जो मेधावी होते हैं, वो बच्चे हर परिस्थिति में कामयाबी हासिल करके दिखाते हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल है कि किसी भी बच्चे के लिए कोई भी जैसे हालात क्यों खड़े किये जाएं क्यों नहीं उसे पढने लिखने के समान और अनुकूल अवसर दिये जाएं, और दूसरा बड़ा सवाल अगर कोई बच्चा उतना मेधावी नहीं है तो क्या उसे पढने और आगे बढने का अधिकार नहीं है।

क्या शिक्षा यही है कि जो बच्चा पढने में तेज हो उसे ही आगे बढाया जाए अमीर वर्ग के बच्चों के साथ तो ये नहीं होता है। उन्हें तो किसी तरह ठेल ठालकर आगे बढाया जाता है। तो फिर ये तर्क किसी एक खास वर्ग के लिए ही क्यों।

परीक्षा परिणाम आने के पहले या बाद में कितने बच्चे आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं कौन है, खासकर तब जब वो इस शब्द का अर्थ भी ठीक से नहीं समझ पाते हैं। जिम्मेदार उनकी मौत के लिए। बच्चों के लिए शायद कोई भी समाज बहुत फिक्रमंद नहीं रहता खासकर उस वर्ग के बच्चों के लिए जो अपनी रोजी रोटी तक के लिए जूझते हैं, ताउम्र अभावों में गुजार देते हैं।

बारबियाना स्कूल के छात्रों ने ये पत्र लिखकर सिर्फ अपने या एक स्कूल के मुद्दे नहीं उठाए हैं। ये दुनिया के हर कोने में मौजूद छात्र से जुड़े हुए बेहद संवेदनशील मुद्दे हैं। जिस पर निश्चित रूप से विचार किया जाना चाहिए और अमल किया जाना चाहिए।
एक बच्चा अध्यापिका को संबोधित करते हुए कहता है कि उन्हें फेल ना किया जाए क्योंकि उसके बाद उनके पास मजदूरी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता है। पुस्तक में बच्चों के अपनी बात को कहने की सीधी और सशक्त शैली एक इस पंक्ति को इस माध्यम से समझा जा सकता है जब बच्चा अध्यापिका को संबोधित करते हुए कहता है कि  आप मुझे या मेरे नाम को भूल गई होंगी। आपने मेरे जैसे न जाने कितनों को फेल किया है। परंतु मैं अक्सर आपको और दूसरी अध्यापिकाओं को, उस संस्था को जिसे आप स्कूल के नाम से पुकारते हैं, और उन लड़कों को जिन्हें आप फेल करती हैं, याद करता हूं,। आप फेल करके हम लोगों को सीधे खेतों में या फैक्ट्रियों में धकेल कर हमें बिल्कुल भूल जाती हैं।

इन बच्चों को इस बात से भी शिकायत है जिन शिक्षकों को उन्हें पढाने की जिम्मेदारी दी जाती है वही शिक्षक पढाने से ज्यादा समय परीक्षाओं में लगा देते हैं। साथ ही परीक्षाओं में इस तरह पहरेदारी की जाती है जैसे कि वे कोई छात्र ना हों बल्कि चोर हों। इस तरह की परिस्थितियां वाकई में किसी भी छात्र के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाली होती हैं।

इन छात्रों ने सवाल उठाया है कि लोग कहते हैं कि लड़कों को स्कूल अच्छा नहीं लगता बल्कि खेलना अधिक पसंद है। जबकि इस संबंध में हम किसानों की राय नहीं ली जाती है। हम जैसे करोड़ों लोग हैं। लेकिन आप अपनी ही संस्कृति के अनुसार सब कुछ तय कर लेते हैं।

इटली के प्रसिद्ध शहर फ्लोरेंस से 50 किलोमीटर दूर इस गांव में एक चर्च है। इस चर्च के फादर डॉन लोरेंजो मिलानी ने ऐसे बच्चों को शिक्षा देने का बीड़ा उठाया जिनके लिए अनिवार्य स्कूलों के दरवाजे बंद कर दिये गए। फादर मिलानी ने उन बच्चों के नए सिरे से पढाने की जिम्मेदारी उठाई और पहले से चले आ रहे ढर्रे से बिल्कुल विपरीत। इन स्कूलों में बच्चों को उनकी रुचि के अनुसार पढाया जाता, और सबसे कमजोर बच्चे को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती। इतना ही नहीं यही बच्चे अगली कक्षा में जाकर पहली कक्षा के बच्चों को पढाते।

किताब में बच्चों ने लड़कियों की शिक्षा पर भी विचार किया है। लिखा है कि लड़कियां बारबियाना के स्कूल नहीं पढने आईं, इसके लिए उन्होंने समाज को उनके माता पिता को जिम्मेदार ठहाराया जो उनके साथ इस तरह का भेदभाव करते हैं, और कहा है कि पुरुष वर्ग लड़कियों को शिक्षित नहीं करना चाहता।

इन छात्रों ने तमाम सवालों के साथ भाषा के सवाल को भी उठाया है और भाषा के आधार पर होने वाले भेदभाव को गलत ठहराते हुए कहा है कि इस तरह के भेदभाव करना गरीब बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करना है। छात्र लिखते हैं कि पहले यह तय किया जाना बहुत जरूरी है कि सही भाषा क्या है। गरीब लोग ही भाषा बनाते हैं और उसमें हमेशा कुछ नया जोड़ते हैं। जबकि अमीर लोग एक साजिश के तहत उसे एक खांचे में बांध देते हैं और अगर कोई उससे भिन्न बोलता है तो उसे अपने से अलग दिखाकर, एक खाई बना सकें और बच्चों को फेल कर सकें। वो कहता है आप लोग आपके तबके से आने वाले बच्चे (पियरीनो) की तारीफ करते हैं, कि उसकी भाषा अच्छी है, इसमें कोई हैरानी भी नहीं क्योंकि वो आपकी ही भाषा लिखता है। क्योंकि वो आपकी ही व्यवस्था का हिस्सा है। गरीब तबके से आने वाला बच्चा (गियात्री) की भाषा आपसे भिन्न है इसलिए वो गलत है। जबकि संविधान में गियात्री जैसे बच्चों का ध्यान रखा है कि भाषा की भिन्नता के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए इसके बावजूद यह सब होता है।

इसको अगर अपने देश के संदर्भ में देखा जाए। भाषा की इसी भिन्नता के आधार पर यहां दो वर्ग बंटे हुए हैं एक अंग्रेजी जानने वाला संपन्न तबका और दूसरा हिंदी और तमाम भारतीय भाषाएं जानने वाला गरीब तबका। और तमाम तरह की जॉब सिर्फ अंग्रेजी जानने वाले संपन्न तबके के लिए ही है। बच्चों ने मुद्दों को ऐसे ही नहीं उठाया है बल्कि तथ्यों के साथ अपनी बात रखी है। आश्चर्यजनक रूप से गरीब तबके के अधिकांश बच्चे प्रारंभिक कक्षाओं में ही स्कूल छोड़ देते हैं जैसे जैसे कक्षाएं बढती हैं इस तबके के बच्चों की संख्या कम होती जाती है। उच्च शिक्षा के स्तर पर आते आते इनकी संख्या नगण्य हो जाती है।

अगर कहीं अलग-अलग स्कूलों के माध्यम से भेदभाव है तो दूसरी ओर एक ही स्कूल में भी अलग-अलग तरह का बर्ताव। चाहे जिस भी तरह की शिक्षा व्यवस्था हो गरीबों के हक में कोई शिक्षा व्यवस्था नहीं है।शिक्षकों का तर्क रहता है कि गरीब परिवारों के बच्चे बेवकूफ होते हैं इसलिए ही उन्हें फेल किया जाता है। इस तरह से अध्यापक लोग भेद करते हैं।

बच्चे शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए प्रस्ताव दते हैं कि बच्चों को फेल ना किया जाए, जो बच्चे अल्पबुद्धि हों उनके लिए पूर्णकालिक स्कूलों की व्यवस्था की जाए। आलसियों के जीवन में कोई उद्देश्य दिया जाए।

यहां तक कि मैजिस्ट्रेल (शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए चार वर्ष की उच्च शिक्षा) में भी ऐसे बच्चों को फेल कर दिया जाता है जो किसी तरह नीचे उठकर ऊपर पहुंचे हैं। जाहिर सी बात अगर जब तक इस तबके से कोई शिक्षक भी नहीं निकलेगा तो उनकी तकलीफों का कम होना मुश्किल है। लेकिन छात्र कहते हैं कि भले ही उन्हें बार-बर फेल कर दिया जाए उसके बावजूद वो फिर परीक्षा देंगे और हार नहीं मानेंगे। इक तरह एक दिन बेहतर अध्यापक बनकर दिखाएंगे।

यानि ये वो बच्चे हैं जो कभी हार नहीं मान सकते। इन्हीं उम्मीदों के सहारे एक बेहतर कल आकर लेता रहेगा। इस पुस्तक का दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है  कई देशों में पढा गया है। मेरा मानना है कि इस पुस्तक को हर स्कूल की लायब्रेरी में होना चाहिए। ताकि ऐसा हर छात्र इस तरह के मुद्दे पर सोचे और लिखे, जिसको ये व्यवस्था परेशान तो करती है लेकिन वो अपने जज्बात जाहिर नहीं कर पाता। इस तरह से बारबियाना के स्कूलों जैसे कई बच्चे सामने आएंगे जो इस मुद्दे पर इतने ही संवेदनशील हैं और उतना ही बेहतर कर सकते हैं, ताकि शिक्षा सिर्फ बड़े लोगों के विमर्श का विषय ना बनकर रहे बल्कि हर बच्चे को इससे संबंधित नीतियां बनाने वालों में शामिल किया जाए।

एनसीईआरटी की पत्रिका 'भारतीय आधुनिक शिक्षा' से साभार