पुस्तक समीक्षा -अंकिता रासुरी
लेखक : बारबियाना स्कूल के छात्र
अनुवादक: सरला मोहनलाल
प्रकाशन वर्ष : 1996
पृष्ठ संख्या-126
मूल्य-125
प्रकाशक- ग्रंथ
शिल्पी (इंडिया) प्रा. लि. -7 सुभाष चौक लक्ष्मीनगर दिल्ली- 110091
किसी भी समस्या पर कोई अगर सबसे अच्छा लिख सकता है
तो वो है खुद पीड़ित व्यक्ति। चाहे वो स्त्री हो, दलित हो
या अन्य कोई भी वंचित तबका। दूसरे की तकलीफों को देखकर लिखना ओर आपबीती लिखना दोनों में एक खास फर्क
है।
खैर यहां बात छात्रों की तकलीफों और उनसे जुड़ी
समस्याओं बारे में हो रही है। बड़े-बड़े शिक्षाविद और तमाम तरह के अकादमिक जगत के
लोग बच्चों के बारे में चाहे जितनी भी नीतियां बनाते आये हों, उनमें बच्चों के
प्रति भले ही जितनी भी चिंता जताई गई लेकिन उनको ध्यान में रखते हुए नीतियां कम ही
बनाई जाती हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि छात्रों से संबंधित फैसले उनकी मर्जी से किये जाएं।
अध्यापक के नाम पत्र एक ऐसी किताब है जो बच्चों के
दिलों को खोलकर रख देती है। इस किताब को सबसे पहले शिक्षकों के हाथ में जाना चाहिए और ऐसे शिक्षाविदों के
हाथों में भी जो पुराने सिद्धांतों को दोहराए जा रहै हैं। यह पुस्तक इटली के एक
छोटे से पहाड़ी गांव बारबियाना के आठ बच्चों ने मिलकर लिखी है। ये उन बच्चों में
से हैं जिन्हें हमेशा से स्कूल में अपनी सामाजिक आर्थिक हैसियत के कारण भेदभाव का
शिकार होना पड़ा। हैरानी की बात ये है कि पूरी दनिया में पढी जाने वाली इस पुस्तक
को लिखने वाले बच्चों की उम्र महज 13 से 15 वर्ष के बीच की है।
इसे भले ही इटली के छात्रों ले लिखा हो लेकिन यह
किसी भी देश के किसी भी छात्र की पीड़ा हो सकती है। समान शिक्षा की बात होती है
लेकिन कहीं भी ऐसा नहीं होता है। इटली में उस दौर में सारे बच्चों को अनिवार्य
सरकारी स्कूल में पढना होता था लेकिन एक ही स्कूल में भी विभेद खोज दिया गया। ऐसा
क्या है कि समान स्कूल में पढने के बावजूद गरीब और अमीर बच्चों को एक जैसी शिक्षा
नहीं मिलती। ऐसे बच्चे जिन्हें स्कूलों से बाहर जाकर फैक्ट्रियों या खेतों में काम
करना पड़ता है, जो अपनी पारिवारिक स्थिति के कारण अमीर बच्चों की बराबरी नहीं कर
पाते हैं, उनके शिक्षक अक्सर उन्हें बेवकूफ ठहरा देते हैं क्या वास्तव में ऐसा है।
कुछ चीजों को दोहरा देना शिक्षा कैसे हो सकती है। जो अमीर परिवारों से आये बच्चे
हमेशा कर लेते हैं क्योंकि यह शिक्षा उन्हीं के अनुसार और उन्हीं लोगों के लिए है।
कितनी जरूरत है इस चीज की शिक्षा पर सबका समान
अधिकार हो। एक सभ्य समाज कहलाने के बावजूद ऐसा क्यों है कि हम शिक्षा जैसी
बुनियादी जरूरत को सबके लिए समान रूप से उपलब्ध ना करा पाएं। ये सिर्फ एक देश की
कहानी नहीं है बल्कि सभी देशों और समाजों की हकीकत है।
अपने ही देश में अगर देखा जाए शिक्षा के स्तर में
असमानता को साफ तौर पर देखा जा सकता है। एक ओर सरकारी विद्यालय है जहां सिर्फ वहीं
बच्चे पढते हैं जो महंगी फीस नहीं चुका सकते। जिनके पास संसाधन हैं उनके बच्चे
अच्छे से अच्छे स्कूलों में ऐय्याशी करते हैं। दोनों के बीच कैसे प्रतियोगिता कराई
जा सकती है। ऐसे में एक निम्न वर्ग की पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाले बच्चे के
लिए शिक्षा में समान भागीदारी और महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचने के मौके लगभग नगण्य
होते हैं।
अक्सर मिसालें दे दी जाती हैं कि जिन्हें पढना होता
है और जो मेधावी होते हैं, वो बच्चे हर परिस्थिति में कामयाबी
हासिल करके दिखाते हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल है कि किसी भी बच्चे के लिए कोई भी
जैसे हालात क्यों खड़े किये जाएं क्यों नहीं उसे पढने लिखने के समान और अनुकूल
अवसर दिये जाएं, और दूसरा बड़ा सवाल अगर कोई बच्चा उतना
मेधावी नहीं है तो क्या उसे पढने और आगे बढने का अधिकार नहीं है।
क्या शिक्षा यही है कि जो बच्चा पढने में तेज हो
उसे ही आगे बढाया जाए अमीर वर्ग के बच्चों के साथ तो ये नहीं होता है। उन्हें तो
किसी तरह ठेल ठालकर आगे बढाया जाता है। तो फिर ये तर्क किसी एक खास वर्ग के लिए ही
क्यों।
परीक्षा परिणाम आने के पहले या बाद में कितने बच्चे
आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं कौन है, खासकर तब जब वो इस शब्द का अर्थ भी ठीक
से नहीं समझ पाते हैं। जिम्मेदार उनकी मौत के लिए। बच्चों के लिए शायद कोई भी समाज
बहुत फिक्रमंद नहीं रहता खासकर उस वर्ग के बच्चों के लिए जो अपनी रोजी रोटी तक के
लिए जूझते हैं, ताउम्र अभावों में गुजार देते हैं।
बारबियाना स्कूल के छात्रों ने ये पत्र लिखकर सिर्फ
अपने या एक स्कूल के मुद्दे नहीं उठाए हैं। ये दुनिया के हर कोने में मौजूद छात्र
से जुड़े हुए बेहद संवेदनशील मुद्दे हैं। जिस पर निश्चित रूप से विचार किया जाना
चाहिए और अमल किया जाना चाहिए।
एक बच्चा अध्यापिका को संबोधित करते हुए कहता है कि
उन्हें फेल ना किया जाए क्योंकि उसके बाद उनके पास मजदूरी करने के अलावा कोई
रास्ता नहीं रह जाता है। पुस्तक में बच्चों के अपनी बात को कहने की सीधी और सशक्त
शैली एक इस पंक्ति को इस माध्यम से समझा जा सकता है जब बच्चा अध्यापिका को संबोधित
करते हुए कहता है कि “आप मुझे
या मेरे नाम को भूल गई होंगी। आपने मेरे जैसे न जाने कितनों को फेल किया है। परंतु
मैं अक्सर आपको और दूसरी अध्यापिकाओं को, उस संस्था को जिसे आप स्कूल के नाम से
पुकारते हैं, और उन लड़कों को जिन्हें आप फेल करती हैं, याद करता हूं,। आप फेल करके हम लोगों को
सीधे खेतों में या फैक्ट्रियों में धकेल कर हमें बिल्कुल भूल जाती हैं।
इन बच्चों को इस बात से भी
शिकायत है जिन शिक्षकों को उन्हें पढाने की जिम्मेदारी दी जाती है वही शिक्षक
पढाने से ज्यादा समय परीक्षाओं में लगा देते हैं। साथ ही परीक्षाओं में इस तरह
पहरेदारी की जाती है जैसे कि वे कोई छात्र ना हों बल्कि चोर हों। इस तरह की
परिस्थितियां वाकई में किसी भी छात्र के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाली होती
हैं।
इन छात्रों ने सवाल उठाया
है कि लोग कहते हैं कि लड़कों को स्कूल अच्छा नहीं लगता बल्कि खेलना अधिक पसंद है।
जबकि इस संबंध में हम किसानों की राय नहीं ली जाती है। हम जैसे करोड़ों लोग हैं।
लेकिन आप अपनी ही संस्कृति के अनुसार सब कुछ तय कर लेते हैं।
इटली के प्रसिद्ध शहर
फ्लोरेंस से 50 किलोमीटर दूर इस गांव में एक चर्च है। इस चर्च के फादर डॉन लोरेंजो
मिलानी ने ऐसे बच्चों को शिक्षा देने का बीड़ा उठाया जिनके लिए अनिवार्य स्कूलों
के दरवाजे बंद कर दिये गए। फादर मिलानी ने उन बच्चों के नए सिरे से पढाने की
जिम्मेदारी उठाई और पहले से चले आ रहे ढर्रे से बिल्कुल विपरीत। इन स्कूलों में
बच्चों को उनकी रुचि के अनुसार पढाया जाता, और सबसे कमजोर बच्चे को सबसे ज्यादा
अहमियत दी जाती। इतना ही नहीं यही बच्चे अगली कक्षा में जाकर पहली कक्षा के बच्चों
को पढाते।
किताब में बच्चों ने
लड़कियों की शिक्षा पर भी विचार किया है। लिखा है कि लड़कियां बारबियाना के स्कूल
नहीं पढने आईं, इसके लिए उन्होंने समाज को उनके माता पिता को जिम्मेदार ठहाराया जो
उनके साथ इस तरह का भेदभाव करते हैं, और कहा है कि पुरुष वर्ग लड़कियों को शिक्षित
नहीं करना चाहता।
इन छात्रों ने तमाम सवालों
के साथ भाषा के सवाल को भी उठाया है और भाषा के आधार पर होने वाले भेदभाव को गलत
ठहराते हुए कहा है कि इस तरह के भेदभाव करना गरीब बच्चों के भविष्य से खिलवाड़
करना है। छात्र लिखते हैं कि पहले यह तय किया जाना बहुत जरूरी है कि सही भाषा क्या
है। गरीब लोग ही भाषा बनाते हैं और उसमें हमेशा कुछ नया जोड़ते हैं। जबकि अमीर लोग
एक साजिश के तहत उसे एक खांचे में बांध देते हैं और अगर कोई उससे भिन्न बोलता है
तो उसे अपने से अलग दिखाकर, एक खाई बना सकें और बच्चों को फेल कर सकें। वो कहता है
आप लोग आपके तबके से आने वाले बच्चे (पियरीनो) की तारीफ करते हैं, कि उसकी भाषा
अच्छी है, इसमें कोई हैरानी भी नहीं क्योंकि वो आपकी ही भाषा लिखता है। क्योंकि वो
आपकी ही व्यवस्था का हिस्सा है। गरीब तबके से आने वाला बच्चा (गियात्री) की भाषा
आपसे भिन्न है इसलिए वो गलत है। जबकि संविधान में गियात्री जैसे बच्चों का ध्यान
रखा है कि भाषा की भिन्नता के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए इसके
बावजूद यह सब होता है।
इसको अगर अपने देश के
संदर्भ में देखा जाए। भाषा की इसी भिन्नता के आधार पर यहां दो वर्ग बंटे हुए हैं
एक अंग्रेजी जानने वाला संपन्न तबका और दूसरा हिंदी और तमाम भारतीय भाषाएं जानने
वाला गरीब तबका। और तमाम तरह की जॉब सिर्फ अंग्रेजी जानने वाले संपन्न तबके के लिए
ही है। बच्चों ने मुद्दों को ऐसे ही नहीं उठाया है बल्कि तथ्यों के साथ अपनी बात
रखी है। आश्चर्यजनक रूप से गरीब तबके के अधिकांश बच्चे प्रारंभिक कक्षाओं में ही
स्कूल छोड़ देते हैं जैसे –जैसे कक्षाएं बढती हैं इस तबके के बच्चों की संख्या कम
होती जाती है। उच्च शिक्षा के स्तर पर आते आते इनकी संख्या नगण्य हो जाती है।
अगर कहीं अलग-अलग स्कूलों
के माध्यम से भेदभाव है तो दूसरी ओर एक ही स्कूल में भी अलग-अलग तरह का बर्ताव।
चाहे जिस भी तरह की शिक्षा व्यवस्था हो गरीबों के हक में कोई शिक्षा व्यवस्था नहीं
है।शिक्षकों का तर्क रहता है
कि गरीब परिवारों के बच्चे बेवकूफ होते हैं इसलिए ही उन्हें फेल किया जाता है। इस
तरह से अध्यापक लोग भेद करते हैं।
बच्चे शिक्षा व्यवस्था में
सुधार के लिए प्रस्ताव दते हैं कि बच्चों को फेल ना किया जाए, जो बच्चे अल्पबुद्धि
हों उनके लिए पूर्णकालिक स्कूलों की व्यवस्था की जाए। आलसियों के जीवन में कोई
उद्देश्य दिया जाए।
यहां तक कि मैजिस्ट्रेल
(शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए चार वर्ष की उच्च शिक्षा) में भी ऐसे बच्चों को फेल
कर दिया जाता है जो किसी तरह नीचे उठकर ऊपर पहुंचे हैं। जाहिर सी बात अगर जब तक इस
तबके से कोई शिक्षक भी नहीं निकलेगा तो उनकी तकलीफों का कम होना मुश्किल है। लेकिन
छात्र कहते हैं कि भले ही उन्हें बार-बर फेल कर दिया जाए उसके बावजूद वो फिर
परीक्षा देंगे और हार नहीं मानेंगे। इक तरह एक दिन बेहतर अध्यापक बनकर दिखाएंगे।
यानि ये वो बच्चे हैं जो
कभी हार नहीं मान सकते। इन्हीं उम्मीदों के सहारे एक बेहतर कल आकर लेता रहेगा। इस
पुस्तक का दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है कई देशों में पढा गया है। मेरा मानना है कि इस
पुस्तक को हर स्कूल की लायब्रेरी में होना चाहिए। ताकि ऐसा हर छात्र इस तरह के
मुद्दे पर सोचे और लिखे, जिसको ये व्यवस्था परेशान तो करती है लेकिन वो अपने
जज्बात जाहिर नहीं कर पाता। इस तरह से बारबियाना के स्कूलों जैसे कई बच्चे सामने
आएंगे जो इस मुद्दे पर इतने ही संवेदनशील हैं और उतना ही बेहतर कर सकते हैं, ताकि
शिक्षा सिर्फ बड़े लोगों के विमर्श का विषय ना बनकर रहे बल्कि हर बच्चे को इससे
संबंधित नीतियां बनाने वालों में शामिल किया जाए।
एनसीईआरटी की पत्रिका 'भारतीय आधुनिक शिक्षा' से साभार
एनसीईआरटी की पत्रिका 'भारतीय आधुनिक शिक्षा' से साभार
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